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________________ २०० [भाष, वीर-विवि सं.it स्वातिके तत्वार्थाधिगमसूत्रका जो भाष्य आजकल इस वाक्यमें जिस माष्यका उल्लेख है वह श्वेताम्बरश्वेताम्बर-सम्प्रदायमें प्रचलित है वही भटाकलंकदेवके सम्मत वर्तमानका भाष्य नहीं हो सकता; क्योंकि इस सामने उपस्थित था, उन्होंने अपने राजवार्तिकमें उसका माध्यमें बहुत बार तो क्या एक बार भी पाग्यामि' यथेष्ट उपयोग किया है और वे उक्त भाष्य तथा मूल ऐसा कहीं उल्लेख अथवा विधान नहीं मिलता । इसमें तत्त्वार्थसूत्रके कर्ताको एक व्यक्ति मानते थे। यह सब तो स्पष्ट रूपसे पांच ही द्रव्य माने गये है,जैसा कि पांचवे बात जिस आधार पर कही गई है अथवा जिन मुद्दों अध्यायके 'बन्यामि जीवाश्च' इस द्वितीय सूत्रके (उल्लेखों आदि) के बल पर सुझानेकी चेष्टा की गई भाष्यमें लिखा है--"एत धर्मादयश्चत्वारो जीवाब है उन 'परसे ठीक -बिना किसी विशेष बाधाके- पंच म्याणि च भवन्तीति" और फिर तृतीय सूत्र में फलित होती है या कि नहीं, यही मेरी इस विचारणाका आए हुए 'भवस्थितानि' पदकी व्याख्या करते हुए मुख्य विषय है। इसी बातको इस तरह पर पुष्ट किया है कि-"न हि ___ इसमें सन्देह नहीं कि अकलंकदेवके मामने तत्त्वा- कदाचित्पंचत्वं भूतार्थत्वं च म्पभिचरन्ति"अर्थात् ये द्रव्य थसूत्रका कोई दूसरा सूत्रपाठ ज़रूर था, जिसके कुछ कभी भी पाँचकी संख्यासे अधिक अथवा कम नहीं पाठोंको उन्होंने स्वीकृत नहीं किया । इससे अधिक होते । सिद्धसेन गगीने भी उक्त तीसरे सूत्रकी अपनी और कुछ उन अवतरणों परमे उपलब्ध नहीं होता जो व्याख्यामें इस बातको स्पष्ट किया है और लिखा है लेखके नं० १ में उद्धृत किये गये हैं। अर्थात् यह कि 'काल किमीके मतसे द्रव्य है परन्तु उमास्वाति निर्विवाद एवं निश्चित रूपसे नहीं कहा जा सकता कि वाचकके मतसे नहीं, वे तो द्रव्योंकी पाँच ही संख्या अकलंकदेवके सामने यही तत्वार्थभाष्य मौजूद था। मानते हैं ।' यथायदि यही तत्त्वार्थभाष्य मौजूद होता तो उक्त नं० १ के "कानश्चैकीयमतेन द्रव्यमिति वच्यते,वाचकमुल्य'घ' भागमें जिन दो सूत्रोंका एक योगीकरण करके रूप स्य पंचैवेति ।" दिया है उनमें से दूसरा सूत्र 'स्वभावमार्दवं च के स्थान ऐसी हालतमें यह स्पष्ट है कि अकलंक देवके पर 'स्वभावमार्दवार्जवं च' होता और दोनों सूत्रोके एक- सामने कोई दूसरा ही भाष्य मौजुद था । जब दूमरा ही योगीकरणका वह रूप भी तब 'अल्पारंभपरिग्रहत्वं स्व. 'माष्य मौजूद था तब लेम्बके नं०२में कुछ अवतरणोंकी भावमार्दवावं च मानुषस्येति' दिया जाता; परन्तु ऐसा तुलना परसे जो नतीजा निकाला गया अथवा सूचन नहीं है। किया गया है वह सम्यक प्रतिभामित नहीं होता--उस वास्तव में न. १ के कथन परमे जो शंका उत्पन्न दूसरे भाष्य में भी उस प्रकार के पशंका विन्यास अथवा होती है और निसे नं. २ मे व्यक्त किया गया है वह वैसा कथन होमकता है । अवतरणाम परस्पर कहीं कहीं ठीक है, और उसका समाधान बादके किसी भी कथन प्रतिपाद्य-विषय-सम्बन्धी कुछ मतभेद भी पाया जाता परसे भले प्रकार नहीं होता । चौथे नम्बर के 'ख' भाग है, जैसा नं० २ के 'क'-'ख' भागोंको देखने से स्पष्ट में गजवार्तिकका जो अवतरण दिया गया है उसमें जाना जाता है । ख-भागमें जब तत्त्वार्थभाष्यका प्रयुक्त हुए “यभाष्ये बहुकृत्वः पाप्यादि इत्युक्त' सिहोंके लिये चार नरकों तक और उरगों (सॉ) के
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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