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________________ ३, किरण सम्पादकीय विचारव (३) इतना ही नहीं, राजवार्तिककारने तत्त्वार्थ- सिद्ध सेनगणिविरचिताया अनगारागारिधर्मप्ररूपकः सप्तभाष्यकी पंक्तियाँ उठाकर उनकी वार्तिक बनाकर उन मोऽधायः।" पर विवेचन किया है । उदाहरण के लिये 'श्रद्धासमय- (ख) "काजोपसंख्यानमिति म पपमाव प्रतिषेधार्थ च' यह भाष्यकी पक्ति है (५.१); इसे सखत्वात्"-स्यादेतत् कालोऽपि कश्चिदजीवपदार्थो"भवाप्रदेशप्रतिपाय च" वार्तिक बनाकर इस पर ऽस्ति प्रतश्चास्ति यद् भाष्ये बटुकृत्वः षद्रव्याणि अकलकका विवेचन है ( ५-१) । इत्यादि । इसी तरह इत्यक्तं अतोस्योपसंख्यानं कर्त्तव्यं इति ? तन्न, किं कारणं अकलकदेवने भाष्यमें उल्लिखित काल, परमाणु श्रादि वक्ष्यमाणलक्षणत्वात् ।" अर्थात् काल भी अजीव की मान्यताओं पर भी यथोचित विचार किया है। पदार्थ है, जिसका उल्लेख भाष्य में कई बार किया और उनम अपने कथनकी संगति बैठानेका प्रयत्न गया है, फिर आपने यहां उसका कथन स्यो नहीं किया है। अवश्य ही कहीं विरोध भी किया है। इससे किया ? यह बात नहीं, क्योंकि उसकी चर्चा मागे ऊपरकी शकाका निरसन हो जाता है, और इससे चलकर होगी। मालूम होता है कि अकलंकके सामने कोई दूसरा सूत्र (ग) मुद्रित गजवात्तिकके अन्त में जो कारिकायें पाठ नहीं था, बल्कि उनके सामने स्वयं तत्त्वार्थ-भाष्य दी हैं, वे कारिकाये भी तत्त्वार्थभाष्यमें पाई जाती है । मौजूद था, जिमका उपयोग उन्होंने वार्तिक अथवा इसके अतिरिक्त पनाकी हस्नलिम्वित प्रतिमें जोहन वार्तिक के विवेचनरूपमें यथास्थान किया है। कारिकाओंके अन्नमें कारिका दी है, वह हम तरह है:(४) नीचे कुछ उद्धरण ऐसे दिये जाते हैं, इति तत्वार्थसूत्राणां भाष्यं भाषितमुत्तमः। जिनमें अकलकदेवने भाष्यके अस्तित्वका स्पष्ट उल्लेख किया है, इतना ही नहीं उसके प्रति बहमान भी यन्त्र संनिहितस्तर्कः न्यायागमविनिर्णयः।। प्रदर्शन किया है: अर्थात्-'उत्तम पुरुषाने तत्त्वार्थसूत्रका भाष्य (क) उनं हि महत्प्रवचने "द्रव्याश्रय। निगुणा लिखा है, उसमें तर्क सनिहित है और न्याय श्रागमका गुणा" इति । यहाँ अर्हत् प्रवचनस तत्त्वार्थभाष्यका ही निर्णय है।' यह कारिका बनारमकी मुद्रित गजवार्तिक अभिमाय मालम होता है। श्वेताम्बर विद्वान् सिद्धसेन प्रतिम नहीं है । इममे जान पड़ता है कि अकलकदेव तो गणि भी इसका 'अहत्प्रवचन' नाम उल्लेग्व करत तत्त्वार्थाधिगमभाष्यस अच्छी तरह परिचित थे, और वे हैं-- "इति श्रीमदह प्रवचने तत्त्वार्थाधिगमे उमास्वाति- तत्त्वार्थसूत्र और उसके मायके कर्ताको एक मानते थे। वाचकोपज्ञ सूत्रभाष्ये भाष्यानुमारिण्यां च टीकायाँ र विद्वान विशेष विचार करेंगे। सम्पादकीय विचारणा इस लेखमें लेखक महोदयने जो विषय विद्वानोंके विचार करने के लिये श्रामत्रित किया है-वह निःसन्देह विचारार्थ प्रस्तुत किया है जिस पर विद्वानोको विशेष बहुत विचारणीय है । लेखक के विचारानुसार उमा
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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