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________________ सम्पादकीय विचारव ३११ 'पास्प्रिवचनहृदये' के स्थान पर 'महस्प्रवचने' छप गया पनादिकर्मसम्बन्धपरतंत्रो विमूरचीः । हो । इस मुद्रित प्रतिके अशुद्ध होनेको प्रोफेसर साहबने संसारचकमालो बंभ्रमीस्यात्मसारथिः॥१॥ स्वयं अपने लेखके शुरूमें स्वीकार भी किया है। अतः सत्वन्तर्वामहेतुभ्यो भव्यारमा सम्बचेतनः । उक्त वाक्यमें 'महत्प्रवचने' पदके प्रयोगमात्रसे यह न- सम्यग्दर्शनसहनमाय मुक्तिकारणम् ॥२॥ तीजा नहीं निकाला जासकता कि अकलक देव के मामने मिथ्यात्वकर्दमापायाप्रसनतरमानसः । वर्तमानमें उपलब्ध होनवाला श्वेताम्बर मम्मत तत्वार्थ- ततो जीवादितवाना याचाम्यमधिगवति ॥३॥ भाष्य मौजूद था, उन्होंने उसके अस्तित्वका स्पष्ट उल्लेख महंममानवो बन्धः संबरो निर्जरातयः । किया है और उसके प्रति बहुमान भी प्रदर्शित किया कर्मणामिति तावार्थलदा समवबुध्यते ॥४॥ है। अकलंक देवने तो इस भाष्यमे पाये जानेवाले हेयोपादेयतत्वको मुमुक्षुः शुभभावनः । कुछ सूत्रपाठीको प्रार्पविरोधी-अनार्ष तथा विद्वानोंके सांसारिकेषु भोगेषु विरज्यति मुहुर्मुहुः ॥५॥ लिये अग्राह्य तक लिखा है । तब इस भाष्यके प्रति, इनके अनन्तर हा 'एवंतवपरिज्ञानाहिरकस्यात्मनो जिसमें बैंस सूत्रपाट पाये जाने हो, उन बहुमान-प्रद- भृशं' इत्यादि कारिकाएँ प्रारम्भ होती हैं। इन पांचशनकी कथा कहाँ तक ठीक हो सकती है, इसे पाठक कारिकाओं के साथ उत्तरवती उन ‘एवं तत्वपरिक्षा' स्वय .मझ मन है । आदि कारिकाका कितना गाढसम्बन्ध है और इनके सवानिक की मुद्रिननिक अन्त में जो३२कारिकाएं बिना उक्त ३२ कार काश्राम की पहली कारका कैसी 'उक्त च' रूम पाई जाती है व उस दूसर भाष्यपर असष्टमी, अमम्बरमा तथा कारिकाबद्ध. पर्वककथनकी से ली हुई होसकती हैं, जिनके सम्बन्धम ग जवानिको अपेक्षाको रखती हुई मालम होती है उस बतलानेकी ही बER पडतम्यागि इत्य" ऐमा उल्लेख किया जरूरत नहीं, महृदय विद्वान पाठक स्वयं समझ सकते गया है ---अर्थात् यह बतलाया है कि उसमें बहुत बार हैं। अतः उन ३२ कारिकाओक उद्धरणापरमे यह नहीं छह द्रव्योंका विधान किया गया है और निमकी चर्चा कहा जामकना कि अकलकने उन्हें प्रस्तुत तत्त्वार्थभाष्य लेखीयन. । केब-भागका विचार करने हर ऊपर की परम हा लिया है। इन मब कारिकाप्राक सम्म जा चुकी है । वे प्रक्षिप्त भी हो मकती हैं अथवा दूसरे मी ममय विशेष विचार प्रग्नुन करनेकी भी मेरी किमी प्राचीन प्रबन्धपरम उद भी कहा जामकती है। इच्छा है । अस्तु ।। ऐमा एक प्राचान प्रबन्ध जयधवलामें उद्धत भी . अब रही गजानककी ममामिसचक-कारिकाकी किया गया है, जिसके प्रारम्भकी पांच कारिकाएँ बान । इस कारिका की मैंने आजम कार्ड २० वर्ष पहले निम्न प्रकार हैं: श्राग जैन मिद्धान्तभवनकी एक प्रतिपरम मालम करके अपने नोट के माथ मवम पहले 'जैन इतषी' इस प्रबन्धको उद्धृन करने के बाद जयधवनामें (भाग १५, अक १-२, पृष्ठ ६) में प्रकट किया था । लिखा है-"एवमेतिएण पवंधेय पिम्वाण फलपजव- बादको यह अनेकान के प्रथम वर्ष की पांचवी किरणमें सा" इत्यादि। भी 'पुरानी बातोंकी खोज' शीर्षकके नीचे प्रकट की
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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