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साहित्य-सम्मेलनकी परिक्षाओंमें जैन-दर्शन
जल संघवी, वयातीर्थ-विशारद]
विसाप्रेमी पाठकोंको मालूम है कि हिन्दी- पत्रमें जैनदर्शनका समावेश किया जाय । साहित्य सम्मेलन प्रयागकी परीक्षाओं के
___ इसके लिये पुस्तकोंकी सूची मेरे पास भेनिये। वैकल्पिक विषयों में जैन-दर्शनको भी स्थान दिखानेके लिये गत दो वर्षोंसे मैं बराबर प्रयत्न करता आ रहा
भवदीयहूँ। हर्षका विषय है कि परीक्षा-समितिने अब जैन
बयाशंकर दुबे, परीक्षा मंत्री। दर्शनको भी स्थान देना स्वीकार कर लिया है। इस
___ समितिके उपयुक प्रस्तावोंसे यहीभात होतो सम्बन्धमें पाये हुए पत्रकी प्रतिलिपि इस प्रकार है:
कि प्रथमा परीक्षा में तो जैन-दर्शन नहीं रक्खा बापगा। प्रिय महोदय !
मध्यमाके वैकल्पिक विषयों में जैन-दर्शन रह सकेगा। जैन-दर्शनको प्रथम तथा मध्यमा परीक्षाओंके इसी प्रकार उत्तमा भी दर्शन विषयके चौथे प्रश्नपत्र में वैकल्पिक विषयों में स्थान देने के लिये हमने आपका पत्र जैन दर्शनको स्थान मिल सकेगा। परीक्षा समितिके सामने विचारार्थ उपस्थित किया था। समितिने इस संबंध निम्नलिखित निश्चय किया
प्रस्तावानुसार मैंने जो पाठ्यक्रम निर्धारित किया है। उसकी प्रतिलिपि इसी निवेदन के अन्तमें दे रहा।
मैंने इस कोर्सकी प्रतिलिपि पं० सुखबानी की (6) प्रथम परीक्षा के लिये एक ऐसी पुस्तक तैयार की जैनेन्द्रकुमारजी (दिल्ली), पं. नाथरामजी प्रेमी, पं. जाय जिसमें सार्वभौमिक धर्म भच्चे रूपसे छोटे बच्चों योमाचन्द्रजी भारिस्त भादि अनेक विद्वानों की सेवामें के सामने रखा जाय और जिसमें भारतमें प्रचलित भी भेजी है। अब सभी शिक्षा-प्रेमी सजनों एवं अन्य भिन्न भिन्न धर्मों के विशेष प्राचार्योंके वाक्यांश उधृत पाठक महानुभावोंकी सेवामें इसे समाचार पत्रों द्वारा हो । पुस्तक प्रकाशनके संबंध यह प्रस्ताव साहित्य पेश कर रहा हूँ। आशा बिजन इस पर अपनी समिति के पास भेजा बाप ।
बहुमूल्य सम्मति एवं संशोधन भेजने की कसा करेंगे। (२) मध्यमा परीक्षामें इस विपकी पुस्तकोंको जिससे कि मैं इसे अंतिम रूप देकर मामाविक रूपसे स्थान देने संबंध में भी संपनीजीसे पहा बाय कि सम्मेलन के अधिकारियों को भेज सई । कौनसी पुस्तक निर्धारित करना चाहते हैं। पुस्तक रजिस्ट्रार परी विमागके पत्र नं. १०२२ द्वारा ऐसी होनी चाहिये जिसमें विवादास्पद विषय न हों। ज्ञात हुआ है कि जैन-दर्शनका समावेश संवत् १८
(१) उसमा परीक्षाके वर्णन-विषयक चौये प्रश्न- हो सकेगा । इसी प्रकार पत्र नं. १५३०. द्वारा