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श्वेताम्बर कर्मसाहित्य और दिगंबर 'पंचसंबई'
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प्रश्न यह है कि वह संग्रह किसका किया हुआ है और · का कोई मेल भी नहीं बैठता और इसलिये इसका कहांसे किया गया है। सटीक प्रतिमें उक्त गाया पर संग्रह किसी दूसरे ही विद्वान्ने किया है। कहसि किया कोई नम्बर नहीं दिया और न चूर्णीकारने इसकी व्या- है, इसका कुछ दिग्दर्शन आगे कराया जाता है। ख्या ही की है। इसीलिये मलधारी हेमचन्द्रने इसकी दि. जैन सम्प्रदायमें प्राकृत पंचसंग्रह नामका टीका नहीं की और लिखा है कि 'यह गाथा इस प्रथके जो एक प्राचीन कर्मग्रंथ उपलब्ध है और जिसका शुरुमें देखी जाती है परन्तु उसकी व्याख्या पूर्व चूर्णी- संक्षिप्त परिचय अनेकान्तके इसी वर्षकी तीसरी किरण कारने नहीं की, इसलिये उक्त गाथा प्रक्षिप्त मालूम में 'अति प्राचीन प्राकृत पंचसंग्रह' शीर्षकके नीचे होती है और सुगम भी है', ऐसा लिखकर उसके दो- कराया जा चुका है, उसके 'शतक' नामक चतुर्थ प्रकतीन पदोंकी साधारण व्याख्या दी है । इससे स्पष्ट रण की, जिममें १०० बातें ३०० गाथाओं में वर्णित है, है कि मलधारी हेमचंद्र भी इस गाथाको मूल ग्रंथकी ६४गाथाएँ इस 'शतक' नामक प्रकरणमें प्रायः ज्योंकी मानने में संदिग्ध थे। अस्तु, यदि इस गाथाको मूल त्यो अथवा कुछ थोड़ेसे पाठ-भेद या सामान्य शब्दग्रंथकी मानना इष्ट नहीं है तो इस ग्रंथके शिवशर्म परिवर्तनके माथ पाई जाती हैं। उनमें एक गाथा ऐसे कर्तृक होने की हालतमें मंगलाचरणकी कोई दूमरी गाथा परिवर्तनको भी लिये हुए है जिनमें थोड़ासा साधारण होनी चाहिये । क्योंकि प्राचार्य शिवशर्मने अपनी 'कर्म- मान्यता भेद उपलब्ध होता है और जो सम्प्रदाय-विशेष प्रकति' में मगलाचरण किया है । यह नहीं हो सकता की मान्यताका सूचक है। कि एक हीग्रंथकार अपने एक ग्रंथमें तो मंगलगानपूर्वक प्राकृत पंचसंग्रहकी जो गाथाएँ उक्त 'शतक' ग्रंथ रचने की प्रतिज्ञा करे और दूमरेमें न मंगलगान करे श्रथवा 'बन्धशतक' में पाई जाती हैं उनमेंसे तीन
और न ग्रंथ रचनेकी कोई प्रतिज्ञा ही करे | जब मंगला- गाथाएँ यहाँ नमने के तौर पर नीचे दी जाती हैं:दिककी दूसरी कोई गाथा नहीं है तब या तो इस ग्रन्थ चोइससरायचरिमे पंचणियट्टीणियहि एथारं । को शिवशर्मकृत न कहना चाहिये । और या यह मानना सोजसमं दुणुभायं संजमगुणपच्छिमो जयह ॥ चाहिये कि उक्त गाथा इमी ग्रंथकी गाथा है और उसके
-प्रा० पचम० ४, ४७० कथनानुमार यह ग्रन्थ एक संग्रह पथ है। दोनों हालतो.
चोइससरागचरिमे पंचमनियट्टिनियहि पकाएं। में यह ग्रंथ शिवशर्मकृत नहीं ठहरता; क्योंकि यह ग्रंथ सोजसमं दुणुभागा संजमगुणपस्थिमो जय ॥ जैमा कि आगे प्रकट किया जायगा, अर्थशः नहीं किन्तु
-बन्धशतक, ७४ शब्दशः इतना अधिक संग्रहप्रथ है कि इसे शिवशर्म
भाहारमप्पमत्तो पमत्तसुदो दु अरह सोयाणं । जैसे श्राचार्यकी कृति नहीं कहा जा सकता । उनके कम
सोलस माणुस तिरिया सुर थिरया तमनमा निपिण। प्रकृति अंधकी पद्धति-कथनशैली और साहित्य के साथ इम
__-प्रा० पचम०, ७, ४७६ •सिद्ध सिदत्वसुयं वंदियविदो य सम्बकम्ममलं । पाहारमप्पमत्तो पमससुद्धो उभरइ सोगाणं । कम्मट्ठगस्स करणहगुदय संताणि वोच्छामि ॥ सोखस माणुसतिरिया सुरनारग तमतमा तिमि ॥ -कर्मप्रकृति १
-बन्धशतक, ७५