SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 158
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ११२ भनेकान्त शीर्ष, वीर-निर्वाय सं०२४६६ अकलकगुरु यादकलंकपदेश्वरः । बौद्धानां बुद्धि-वैधव्य-दीक्षागुरुरुदाहृतः ॥ -हनुमचरिते, ब्रह्मभजितः जो बौद्धोंकी बुद्धिको वैधव्य-दीक्षा देनेवाले गुरु कहे जाते है जिनके सामने बौद्धविद्वानोंकी बुद्धि विधवाजैसी दशाको प्राप्त होगई थी, उसका कोई ऐसा स्वामी नहीं रहा था जो बौद्ध-सिद्धान्तांकी प्रतिष्ठाको कायम रख सके-वे अकलंकपदके अधिपति श्री अकलंकगुरु जयवन्त हो-चिरकाल तक हमारे हृदयन्दिर में विराजमान रहें। तभूवल्लभो देवः स जयत्यकलंकधीः । जगद्व्यमुषो येन दण्डिताः शाक्यदस्यवः ।। -पार्श्वनाथचरिते, वादिराजसरिः जिन्होंने जगत्के द्रव्योंको चुरानेवाले-शून्यवाद-नैरात्म्यवादादि सिद्धांतोंके द्वारा जगतके द्रव्योंका अपहरणकरनेवाले, उनका प्रभाव प्रतिपादन करनेवाले–चौद्ध दस्युनोंको दण्डित किया, वे अकलंकबुद्धिके धारक तर्काधिराज श्रीअकलंकदेव जयवन्त हैं-सदा ही अपनी कृतियोंसे पाठकोंके हृदयोपर अपना सिक्का जमानेवाले हैं । भट्टाकलंकोऽकृत सौगतादि-दुर्वाक्यपंकैस्स कलंकभूतम् । जगत्स्वनामेव विधातुमुचैः सार्थ समन्तादकलंकमेव ॥ -श्रवणबेल्गोल-शिलालेख नं. १०१ बौद्धादि-दार्शनिकोंके मिथ्र्यकान्तवादरूप दुर्वचन-पंकस सकलंक हुए जगत को भट्टाकलंकदेवनं, अपने नामको मानों पूरी तौरसे सार्थक करने के लिये ही, अकलंक बना डाला है--अर्थात् उसकी बुद्धिमें प्रविष्ट हुए. एकान्त-मलको, अपने अनेकान्तमय वचनप्रभावसे धो डाला है। इत्थं समस्तमतवादि-करीन्द्र-दर्पमुन्मूलयनमनमानदृढप्रहारैः। स्याद्वाद-कंसरसटाशततीव्रमूर्तिः, पंचाननो भुवि जयत्यकलंकदेवः ॥ -न्यायकुमुदचन्द्र, प्रभाचन्द्राचार्यः इस प्रकार जिन्होंने निर्दोष प्रमाणके दृढ प्रहारोंसे समस्त अन्यमतवादिरूपी राजेन्द्रोंके गर्वको निमूल कर दिया है वे स्याद्वादमय सैंकड़ों केसरिक जटाओंसे प्रचण्ड एवं प्रभावशालिनी मूर्तिके धारक श्रीअकलंकदेव भूमं इल पर केहरिसिंह केसमान जयशील हैं-अपनी प्रवचन-गर्जनासे सदा ही लोक-हृदयोंको विजित करनेवाले हैं। जीयाचिरमकलंकब्रह्मा लघुहव्वनृपति-वरतनयः । अनवरत-निखिलजन-नुविद्यः प्रशस्तजन-हयः॥ -तत्वारा०, प्रथमाध्याय-प्रशस्तिः जिनकी विद्या-ज्ञानमाहात्म्य के सामने सदा ही सब जन नतमस्तक रहते थे और जो सजनोंके हृदयोंको हरनेवाले थे-उनके प्रेमपात्र एवं प्राराध्य बने हुए थे-वे लघुहव्वराजाके श्रेष्ठपुत्र भीअकलंकब्रह्मा-अकलंक नामके उच्चात्मा महर्षि-चिरकाल तक जयवन्त हों-अपने प्रवचनतीर्थ-द्वारा लोकहृदयोंमें सदा सादर विराजमान रहें।
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy