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बौद्ध तथा जैन-ग्रन्थोंमें दीक्षा
[ ले० - श्री० प्रोफेसर जगदीशचन्द्र जैन एम. ए. ]
त्यन्त प्राचीन समयसे भारतीय इतिहास में दो धारायें चयन्त देखने में श्राती हैं । कुछ लोग ऐसे थे जो वेदपाठी थे, अग्नि-पूजक थे और देवी-देवताओं को प्रसन्न करनेके लिये यज्ञ-याग आदि करनेमें ही कल्याण मानते थे। दूसरे लोग उक्त बातों में विश्वास न करते थे; उनका लक्ष्य था त्याग, तप, श्रहिंमा, ध्यान श्रौर काय -क्लेश । प्रथम वर्ग के लोगोंका लक्ष्य प्रवृत्ति प्रधान और दूसरे वर्गका निवृत्ति प्रधान था । एक वर्गके लोग ब्राह्मण थे, दूसरे वर्ग के क्षत्रिय अथवा श्रमण थे । ऋग्वे दमें भी ऐसे लोगोंका उल्लेख श्राता है जो वेदोंको न मानते थे और इन्द्रके अस्तित्वमें विश्वास न करते थे । यजुर्वेद संहिता में इन लोगोंका 'यति' के नामसे उल्लेख किया गया है। आपस्तंभ, बोधायन आदि ब्राह्मणों के धर्मसूत्रों में इन श्रमणोंके विधि-विधानका विस्तारसे कथन श्राता है । इसी तरह उपनिषदोंमें 'भिक्षाचर्या' श्रादिके उल्लेखों के साथ स्पष्ट कहा गया हे - " नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यः, न मध्या न वा बहुना श्रुतेन" - प्रर्थात् श्रात्मा शास्त्र, बुद्धि श्रादिके गोचर है ।
श्रमण (समय) शब्दकी व्युत्पत्ति बताते हुए शास्त्रकारोने लिखा है-भ्राम्यति तपस्यतीति श्रमणः, श्रथवा सह शोभनेन मनसा वर्त्तत इति सममा:अर्थात् जो श्रम करते हैं-तप करते हैं वे भ्रमण हैं,
श्रथवा जिनका मन सुन्दर हो उन्हें भ्रमण कहते हैं । यहाँ यह बात खास ध्यान रखने योग्य है कि भ्रमणका अर्थ केवल जैनसम्प्रदाय ही नहीं, किंतु श्रभयदेवसूरिने 'निर्मथ, शाक्य, तापस, गेरुक श्रौर श्राजीवक' इस तरह श्रमणोंके पांच भेद बताये हैं । जैसा ऊपर बताया गया है भ्रमणका धर्म निवृत्ति प्रधान है। उनका कहना है कि यह ससार क्षण भंगुर है, संसारमें मोह करना योग्य नहीं संसार में रहकर मनुष्य मोक्ष नहीं प्राप्त कर सकता, इसलिये इसका त्याग कर बनमें जाकर अपने ध्येयकी सिद्धि तपश्चर्या और ध्यानयोगसे करनी चाहिये । गृहत्याग के साथ साथ भ्रमण लोगोंमें श्रात्मोत्सर्गकी भी चरम सीमा बताई गई है। उदाहरणके लिये महाभारत में शिवि राजाका वर्णन आता है जिसने एक अंधे श्रादमीको अपनी आँखें निकालकर दे दी थीं । मनुस्मृति और ब्राह्मणों के पुराण-साहित्य में श्रात्म-त्याग के विविध प्रकार बताकर उनका गुणगान किया गया है। श्रमप्रवेश, जलप्रवेश, पर्वतसे गिरना, वृक्षसे गिरना आदि श्रात्मोत्सर्ग के अनेक प्रकारोंका वर्णन पुराणों में आता है। साथ ही वहाँ यह भी बताया गया है कि इन उपायोंसे श्रात्मोत्सर्ग करने वाला मनुष्य श्रात्मघाती नहीं कहलाता, बल्कि वह हजारों वर्ष तक स्वर्ग सुखका अनुभव करता है । बुद्ध भगवान् ने भी अपने किसी पूर्वभवमें एक पक्षीको बचाने के लिये अपने