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नीति-विरोध-ध्वंसी लोक-व्यवहार वर्तकः सम्यक् । परमागमस्य बीजं भुवनैकगुरुर्जयत्यनेकान्तः ॥
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सम्पादन-स्थान-चीरसंवामन्दिर (समन्तभद्राश्रम), मरमावा, जि. सहारनपुर
प्रकाशन-स्थान-कनॉट सर्कस, पो० ब० नं० ४८, न्यू देहली मार्गशीर्ष-पूर्णिमा, वीरनिर्वाण सं० २४६६, विक्रम मं० १६६६
। किरण २
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प्रकलंक-स्मरणा श्रीमद्भट्टाऽकलंकस्य पातु पुण्या सरस्वती । अनकान्त-मरुन्मार्गे चन्द्रलेखायितं यया ॥
-ज्ञानार्थवे, श्रीरामचन्द्राचार्यः __ श्रीसम्पन्न भट्ट-अकलंकदेवकी वह पुण्या सरस्वती-पवित्र भारती-हमारी रक्षा करो-हमें मिथ्यात्वरूपी गर्त में पड़नेस बचानी-जो अनेकान्तरूपी श्राकाशमं चन्द्रमाके ममान देदीप्यमान है-मर्वोत्कृष्टरूपसे वर्तमान है। भावार्थ-श्री अकलंकदेवकी मंगलमय वचनश्री पद पद पर अनेकान्तरूपी मन्मार्गको व्यक्त करती है और इस तरह अपने उपासकों एवं शरणागतोंको मिथ्या-एकान्तरूप कुमार्ग पर लगने नहीं देती। अतः हम उस अकलंक सरस्वतीकी शरण में प्राप्त होते हैं, वह अपने दिव्य-तेज-द्वारा कुमार्गसे हमारी रक्षा करो।
जीयात्समन्तभद्रस्य दवागमनसंझिनः । स्तोत्रस्य भाष्यं कृतवानकलको महर्दिकः ।।
-नगर-ताम्बुक, शिमोगा-शिलेवन.१६ स्वामी समन्तभद्रके 'देवागम' नामक स्तोत्रका जिन्होंने भाष्य रचा है-उसपर 'अष्टशती' नामका विवरण लिखा है-वे महाऋद्धिके धारक अकलंकदेव जयवन्त हों-अपने प्रभावसे सदा लोकहृदयोंमें व्याप्त होवें ।