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मो. जगदीशचन्द्र और उनकी समीक्षा
सूत्रमाष्ये-ये तीनो पद सप्तम्यन्त है । उमास्वाति- 'तत्त्वार्थाधिगम नामके अहत्यवचनमें, उमास्वातिवाचकोपचसूत्रभाष्यसे स्पष्ट है कि उमास्वातिवाचकका वाचकोपज्ञसूत्रभाष्यमें, और भाष्यानुसारिणी टीकामें, स्वोपज कोई भाष्य है। इसका नाम तत्वार्थाधिगम है। जोकि सिद्धसेनगणि-विरचित है, अनगार (मुनि) और इसे अहत्प्रवचन भी कहा जाता है। स्वयं उमास्वातिने अगारि (गृहस्थ) धर्मका प्ररूपक सातवाँ अध्याय समाप्त अपने भाष्यकी निम्न कारिकामें इसका समर्थन किया हुश्रा ।'
और इसलिये प्रो० साहनका 'पखवचने आदि तवार्थाधिगमाख्यं महर्य संग्रहं बघुप्रथं ।
तीन ससभ्यन्त पदोंको एक ही ग्रन्थ 'भाव्य का वाचक वपयामि शिष्यहितमिममहंदवनैकदेशस्य ॥" समझना और यह बतलाना कि भाष्यका नाम 'तत्वार्था
धिगम' है और उमीको 'अर्हत्पवचन' भी कहा जाता है, १ परीक्षा-यह ठीक है कि 'अर्हत्पवचने' आदि
नितान्त भ्रममूलक है । भाष्यका नाम न तो 'तत्त्वार्थातीनों पद सप्तम्यन्त है; परन्तु सप्तम्यन्त होने मात्रसे
धिगम' है और न 'अहत्पवचन', 'तत्वार्थाधिगम' मूलक्या सिद्ध होता है ? यह यहाँ कुछ बतलाया नहीं गया !
सूत्रका नाम है और 'अर्हत्यवचन' यहाँ 'अहत्प्रवचनयदि सप्तम्यन्न होने मात्र प्रो० साहबको यह बतलाना
संग्रह' के स्थान पर प्रयुक्त हुआ है, जो कि मूलतत्वार्थ इष्ट हो कि जो जो पद सप्तम्यन्त हैं वे सब एक ही अन्य
सूत्रका ही नाम है; जैसाकि रॉयल एशियाटिक सोसाके वाचक है तो क्या उक्त वाक्यमें प्रयक्त हए दूसरे
इटी कलकत्ता द्वारा संवत् १६५६ में प्रकाशित तत्वार्याससम्यन्त पदों-'टीकायो' श्रादिका वाच्य भी श्राप
धिगमसूत्रके निम्न संधिवाक्यसे प्रकट हैएक ही ग्रन्थ बतलाएँगे? यदि ऐसा न बतलाकर टीका को भाष्यमे अलग ग्रन्थ बतलाएंगे तो फिर टीका और "इति तत्वार्थाथिगमास्येऽहंस्त्रवचनसंग्रहे देवगतिभाष्यसे भिन्न मूल 'तत्त्वार्थाधिगम' सूत्रको वहाँ अलग प्रदर्शनो नाम चतुर्थोऽध्यायः समासः।" ग्रन्थरूपसे उल्लेखित बतलाने में क्या आपत्ति हो सकती है ? सिद्धसेनकी तत्वार्थवत्तिमं तो मूलमत्र, सत्रका तत्वार्थसत्रके इस संस्करण में, जो बहुतसी ग्रंथ. भाष्य और भाष्यानुमारिणी टीका तीनों ही शामिल हैं प्रतियों के आधार पर भाष्य-सहित मुद्रित हुआ है, सर्वत्र और तीनों ही की समातिको लिये हुए मप्तम अध्यायका संधिवाक्यों में 'तत्वार्थाधिगम' और 'अर्हत्प्रवचनसंग्रह' उक्त संधिवाक्य (पुष्पिका ) है। ऐमा भी नहीं कि ये दोनों ही नाम मूलसूत्रके दिये हैं । तत्वार्थसत्रकी जिस सप्तम अध्यायका जो विषय 'अनगारागारि-धर्मप्ररुपण' सटिप्पण प्रतिका परिचय मैंने अनेकान्तके वीरशासनाङ्क' बतलाया है वह मूलसूत्रका विषय न होकर भाष्य तथा में दिया था उसमें भी मर्वत्र 'इति तस्याधिगमेहब. टीकाका ही विषय हो । ऐमी हालतमें 'तत्त्वार्थाधिगमे पचनसंग्रहे प्रथमो (द्वतीयो, तृतीयो.") ऽध्यायः' पदको उसके 'महप्रवचने' विशेषण-सहित मूलतत्त्वार्थ- रूपसे मूलसूत्रके लिये इन्हीं दोनों नामोंका प्रयोग किया सूत्रका वाचक न मानना युक्तिशन्य जान पड़ता है। है । खुद सिद्धसेनगणिकी टीकामें भी दूसरे अनेक वास्तवमें उक्त वाक्यका अर्थ इस प्रकार है- स्थानों पर जहाँ भाष्यका नाम भी साथमें उल्लेखित