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[भारिवन, वीर निर्वाण सं०२४१५
नहीं है, इन्हीं दोनों नामोंका मूलसूत्रके लिये प्रयोग भाष्यका नहीं-भाष्यका परिमाण तो उससे कई गुणा पाया जाता है, जिसके दो नमूने इस प्रकार है- अधिक है । ग्रन्थके बहुअर्थ और लघु (अल्पाक्षर) "इति सत्याधिगमेऽईप्रवचनसंग्रहे भाष्ानुसारिण्यां विशेषण भी उसके सूत्रग्रंथ होने को ही बतलाते हैं, अतः तत्वार्यटोकापा(वृत्तौ)संवर(मोर) स्वल्पविरूपको नवमो इम विषयमं कोई संदेह नहीं रहता कि 'तत्वार्याधिगम' (दशमो)ऽध्यायः ।"
और 'अहस्प्रवचनसग्रह' ये दोनों मूल तत्वार्थसूत्रके ही इसके अतिरिक भाष्यकी जिस कारिकाको प्रो० नाम है-उसके भाष्यके नहीं। साहबने अपने कथनकी पुष्टिमें प्रमाणरूपसे पेश किया
और इसलिये राजवार्तिक के उक्त वाक्यमें प्रयुक्त है उसमें भी 'तत्त्वार्याधिगम' यह नाम मूल सूत्रग्रंथ
: हुए ‘भर्हस्प्रवचने' पद परसे प्रो० साहबने जो यह (बहर्थ लघुग्रंथ ) का बतलाया है और साथ ही उसे
नतीजा निकालना चाहा था कि उससे तत्वार्थमाष्यका 'अहंदचनैकदेशका संग्रह' बनलाकर प्रकारान्तरसे
ही अभिप्राय है वह नहीं निकाला जा सकता, और न उसका दूसरा नाम 'अहत्प्रवचनसंग्रह' भी सूचित किया
उसके आधार पर यह फलित ही किया जा सकता है है-भाष्यके लिये इन दोनों नामोंका प्रयोग नहीं किया
कि 'अकलकदेवके सामने वर्तमानमें उपलब्ध होनेवाला है, जैसा कि प्रो० साहब समझ बैठे हैं ! चुनाँचे खुद
श्वेताम्बर-सम्मत तत्वार्थभाष्य मौजूद था और उन्होंने प्रो० साहबके मान्य विद्वान् सिद्धसेन गणि भी इस
ससके द्वारा उमके अस्तित्वका स्पष्ट उल्लेख किया है कारिकाकी टीकामें ऐसा ही सूचित करते हैं,वे 'तत्वार्थाधिगम' को इस सत्रग्रन्थकी अन्वर्थ (गौण्याख्या )
तथा उसके प्रति बहुमान भी प्रदर्शित किया है।' खेद संशा बतलाते हैं और साफ़ तौरसे यहाँ तक लिखते हैं
ना है कि प्रो० साहबको इतना भी विचार नहीं पाया कि कि जिस लघुग्रन्थ के कथनकी प्रतिज्ञाका इसमें उल्लेख
राजवार्तिकके उक्त वाक्यमें जिस सूत्र ('द्रव्याश्रया है वह मात्र दोसौ श्लोक-जितना है । यथाः
निगुणा गुणाः' ) का उल्लेख है वह भाष्यकी कोई "तत्त्वार्थोऽधिगम्यतेऽनेनास्मिन् वेसि तस्वार्थाधिगमः,
पंक्ति न हो कर मूलतत्वार्थसूत्रका वाक्य है, और
इसलिये प्रकटरूपमें 'हत्प्रवचन' का यदि कोई दसरा इपमेवास्य गौण्याख्या नामेति तत्वार्थाधिगमाख्यस्तं, बह्वयं सच ब्रहः बहुविपुलोऽर्थोऽस्येति बहर्थः सप्त
अर्थ लिया जाय तो वह उमास्वातिका मूलतत्वार्थाधिपदार्थनिर्यवएताबाश्च शेयविषयः । संग्रहं समासं, जघु
गमसत्र होना चाहिये, न कि उसका भाष्य ! फिर उस ग्रंथ श्वोक्यतपमान।"
अर्थ तक तो उनकी दृष्टि ही कहाँ पहुँचती, जिसका
स्पष्टीकरण ऊपर परीक्षा नं. २ में और उसके पूर्व दोसौ श्लोक जितना प्रमाण मूलग्रंथका ही है,
किया जा चुका है। बहुत सभव है कि प्रथम लेखके • 'उमास्वातिवाचकोपज्ञसूत्रभाष्ये' इस प्रकारसे लिखते समय प्रो० साहबके सामने राजवार्तिक और भाष्यका नाम साथमें उल्लेख करने वाला पद सातवें सिद्धसेनकी टीका न रहकर उनके नोटम ही रहे हो अध्यायको छोड़ कर अन्य किसी भी अध्यायके अन्तमें तथा साथमें पं० सुखलालजीकी हिन्दी टीकाकी प्रस्तानहीं पाया जाता है।
वना भी रही हो और उन्हीं परसे आपने अपने लेखका