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________________ १० अनेकान्त [ वर्ष ३, किरण १ समाप्त करते हुए भी इतना ही लिखा है कि "एवमोगाहगप्पा हुए सुबुत्ते बंधरिणज्जं समत्तं होदि । " दूसरे, 'वर्गणासूत्र' का अभिप्राय वर्गणाखंडकासूत्र नहीं किन्तु वर्गणाविषयक सूत्र है । वर्गणाका विषय अनेक खंडों तथा अनुयोगद्वारोंमें आया है, 'वेदना' नामके अनुयोगद्वार में भी वह पाया जाता है - " वग्गण परूवणा" ars' के ही अधिकार हैं, जिनके क्रमशः कथनकी ग्रंथसूचना की गई है । .: (घ) चौथी बात है कुछ वर्गणासूत्रों के उल्लेख की। सोनीजीने वेदनाखण्ड के शुरू में दिये हुए मंगलसूत्रोंकी व्याख्यामेंसे निम्न लिखित तीन वाक्योंको उद्धृत किया है, जो वर्गशास्त्रोंके उल्लेखको लिये हुए हैं "ओहिणारणावरणस्स असंखेज्जमेत्ताश्रो चेव नामका उसमें एक श्रवान्तरान्तर अधिकार है । उस अधिकारका कोई सूत्र यदि वर्गणासूत्रके नामसे कहीं उल्लेखित हो तो क्या सोनीजी उस अधिकार अथवा वेदना अनुयोगद्वार को ही 'वर्गणाखंड' कहना उचित समझेंगे ? यदि नहीं तो फिर उक्त वर्गणा सूत्रोंके प्रकृतिआदि अनुयोगद्वारोंमें पाये जाने मात्र से उन अनुयोग द्वारोंको 'वर्गणाखंड' कहना कैसे उचित हो सकता है ? कदापि नहीं । अतः मोनीजीका उक्त वर्गणसूत्रों के उल्लेख परसे यह नतीजा निकालना कि "यही वर्गणाखंड है— इससे जुदा और कोई वर्गणाखड नहीं है " ज़रा भी तर्कसंगत मालम नहीं होना । पडीओ ति वग्गणसुत्तादो ।" “कालो चउरण उड्ढी कालो भजिदव्वो खेत्तवुड्ढीए बुड्ढीए दब्वपज्जय भजिदव्वो खेत्तकाला दु || एवम्हादो वग्गणसुत्तादो व्वदे ।” "आहारबम्गरणाए दुव्वा थोवा, तेयावग्गरणाए दव्वा श्रणंतगुणा, भासावग्गणाए दव्वा श्रणंतगुरणा, मा० दव्वा अांतगुणा, कम्मइय अांतगुणा त्ति वग्गणसुन्तादो गव्वद ।” ये वाक्य यद्यपि धवलादि-सम्बन्धी मेरी उस नोट्स में नोट किये हुए नहीं हैं जिसके आधारपर यह सब परिचय लिखा जा रहा है, और इससे मुझे इनकी जाँचका और इनके पूर्वापर सम्बन्धको मालूम करके यथेष्ट विचार करनेका अवसर नहीं मिल सका; फिर भी सोनी जी इन वाक्यों में उल्लेखित प्रथम दो वर्गणसूत्रोंका 'प्रकृत' अनुयोगद्वार में और तीसरेका ' बन्धनीय' अधिकार में जो पाया जाना लिखते हैं उस पर मुझे सन्देह करनेकी ज़रूरत नहीं है । परन्तु इस पाये जाने मात्रसे ही 'प्रकृत' अनुयोगद्वार और 'बन्धनीय' अधिकार afras नहीं हो जाते। क्योंकि प्रथम तो ये अधिकार और इनके साथ फामादि अधिकार वर्गणाखण्ड कोई श्रंग नहीं हैं, यह बात ऊपर स्पष्ट की जा चुकी है इनमेंसे किसीके भी शुरू, मध्य या अन्तमें इन्हें वर्णाखंड नहीं लिखा, अन्तके 'बन्धनीय' श्रधिकारको यहाँ पर मैं इतना और भी बतला देना चाहता हूँ कि पट्खडागम के उपलब्ध चारखंडों में सैकड़ों सूत्र ऐसे हैं जो अनेक खंडों तथा एक खंडके अनेक अनुयोगद्वारोंमें ज्योंके त्यों अथवा कुछ पाठभेदके साथ पाये जाते है-जैसे कि 'गइ इंदिए च काए '० नामका मार्गणासूत्र जीवद्वाण, खुदाबंध और वेयणा नामके तीन खंडोंमें पाया जाता है। किसी सूत्रकी एकता अथवा समानता के कारण जिस प्रकार इन खंडों मेंसे एक खंडको दूसरा खंड तथा एक अनुयोगद्वारको दूसरा अनुयोगद्वार नहीं कह सकते उसी प्रकार वर्गणाखंडके कुछ सूत्र यदि इन खंडों अथवा श्रनुयोगद्वारोंमें पाये जाते हों तो इतने परसे ही इन्हें वर्गणाखंड नहीं कहा जा सकता । वर्गणाखंड कहनेके लिये तद्विषयक दूसरी
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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