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दर्शनोंकी
कार्तिक, वीर निर्वाण सं० २४६६ ]
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चाहिये । यद्यपि यह कह सकना बहुत कठिन है कि श्रमुक दर्शन पूर्वोक्त उच्चतम श्रादि विशेषणांके सर्वथा उपयुक्त है, तथापि दर्शनों की उपलब्ध विवेचनानों पर ध्यान आकृष्ट करने के बाद जिस दर्शनकी विवेचना मस्तिष्क की उलझी हुई गुत्थियों को सुलझावे और संसार का कल्याण करने में अमोघ साबित हो वही सर्वोत्तम समझा जाना चाहिये ।
दृश्यमान जड़ और चेतन जगत के रहस्यका अन्वे पाकिस दर्शनने कितना किया है, यह जानने के लिये उन दर्शनोंकी विवेचनाओं पर एक सरसरी नज़र डाल लेना आवश्यक है । यद्यपि दुनियाँ के तमाम दर्शनोंके मन्तव्योंके विषय में यहाँ ऊहापोह नहीं किया जा सकता और न उन सब दर्शनोंकी मुझे जानकारी ही है, तो भी यहाँ पर कतिपय मुख्य दर्शनों (जिन दर्शनों में ही प्रायः अन्य दर्शनोंका अन्तर्भाव हो जाता है ) की तरफ़ ध्यान श्राकुष्ट करना बहुत ज़रूरी है । संसार में जितने भी दर्शनोंका जन्म हुआ है उनका चार भागों में बटवारा किया जा सकता है— (१) व दर्शन जो केवल ईश्वरको ही मानते हैं, (२) एकमात्र प्रकृति अर्थात् जड़ पदार्थ को मानने वाले दर्शन, (२) वे दर्शन जो ईश्वर, जीव और प्रकृतिको मानते हैं, (४) श्रौर वं दर्शन जो जीव तथा अजीव प्रकृतिको स्वीकार करते हैं । इन चार मान्यताओं से किसी न किसी एक मान्यता में इस अखिल विश्व मण्डलका रहस्य छिपा हुआ है, जिसके लिये ही उक्त मान्यताएँ और उनकी शाखा प्रशाखारूप दर्शन उपन्न हुए ।
यद्यपि इन मान्यताओं और इनसे सम्बन्ध रखने वाले दर्शनों की रूपरेखा खींचनेके लिये महती विद्वत्ता तथा समयकी प्रचुरताकी बहुत श्रावश्यकता है, ये बातें जिन विद्वानोंके पास संभव हों वे 'दर्शन' पर एक अच्छा
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ग्रन्थ निर्माण कर सकते हैं। इस समय मेरा न तो दर्शन ग्रन्थ निर्माण करनेका विचार है और न मुझे उतनी बड़ी जानकारी ही है । परन्तु यहाँ पर ( इस लेख में ) इन मान्यताओं पर कुछ प्रकाश डालना ज़रूरी है, जिससे यह मालूम हो सके कि अमुक मान्यता वा दर्शन सत्य तथा मंगलप्रद है और अमुक मान्यता वा दर्शन मिथ्या और मंगलप्रद है । उपर्युक्त ईश्वर श्रादिकी मान्यताओं का ठीक ज्ञान होते ही दार्शनिक के मस्तिष्क में उठने वाले 'मैं क्या हूँ ?' यह विश्व क्या है ? इत्यादि प्रश्नोंका सरलतासे हल निकल आता है । और इन प्रश्नोंका निर्णय होते ही दर्शनका कार्य समाप्त हो जाता है, इसलिये कहना होगा कि प्रकृति, जीव और ईश्वर इन तत्वोंमें ही विश्वका रहस्य श्रभिभूत हो रहा है तथा इनका विवेचन करना अत्यन्त श्रावश्यक है।
जिन दर्शनोंमें केवल ईश्वर ही माना गया है, उनका कहना है कि-से सुदीर्घ काल पहले इस चराचर विश्वका कोई पता न था, एकमात्र ईश्वर है। का सद्भाव था। इस मान्यताको स्वीकार करने वाले दर्शनोंमें मुस्लिमदर्शन, ईसुदर्शन श्रादि प्रमुख हैं । मुसलमान और ईमाई दार्शनिकों का कहना है कि से बहुत समय पहले एक समय ऐसा था अब इस जड़ श्रौर चेतन जगत् का नामोनिशान भी न था, केवल एक अनादि, अनन्त, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, पूर्ण ईश्वर अर्थात खुदा गौडका ही अस्तित्व था । यद्यपि ईश्वर परिपूर्ण था, उसे किसी प्रकारको आवश्यकता न थी, तथापि एक विशेष अवसर पर उसे सृष्टि रचना करनेकी लालसा हुई । ईश्वरने स्वेच्छानुसार स्व-सामर्थ्य द्वारा शून्य अर्थात् नास्तिसे यह दृश्य जगत उत्पन्न किया। छह दिन तक खुदा अपनी इच्छासे तमाम रचना करता रहा । उसने पहाड़, समुद्र, नदी, भूखण्ड,