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________________ अनेकान्त [वर्ष १, किरण १ हाथी, घोड़ा, बैल, सिंह, बकरा, बकरी श्रादि अचेतन जगह न देख प्रजापति रोने लगा, प्रजापतिकी अखिोसे और चेतन जगत्की रचना की । इस रचनाके बाद अश्रु-विन्दु टपककर समुद्रके जल-पटल पर गिर कर खुदाने सोचा कि मेरी एक प्रतिमूर्ति भी होना चाहिये, पृथ्वीमें तब्दील हो गये । बादमें प्रजापतिने भूभागको इच्छा होने की देरी थी कि खुदाकी एक दूसरी प्रतिमूर्ति साफ़ किया, जिससे वायुमण्डल और आकाशकी तैयार होगई, खुदाने उसे अचेतन देव उसमें चेतन उत्पत्ति हुई। शक्तिका मंचार किया । इतना विपुल कार्य करनेके बाद दूसरी जगह लिखा है कि प्रजापतिने एकसे अनेक खुदा श्रान्त होगया, उसने अपनी प्रतिमर्ति हज़रत होने के लिये तपस्या की, तपस्यासे वेद और जलकी श्रादमके सामने अपनी सम्पर्ण रचना रग्वदी और उसे उत्पत्ति हुई । प्रनापतिने त्रयीविद्याको लेकर जल में उन समस्त पदार्थोंका नामकरण करनेका श्रादेश दे प्रवेश किया, इससे अण्डा उत्पन्न हुश्रा, प्रजापतिने वें दिन रविवारको विश्राम करने चला गया । हज़रत अण्डेको स्पर्श किया, जिससे अग्नि, वाष्प, मिट्टी आदि आदमने सबका यथोचित नाम-निर्देश किया । पैदा हुई । उपनिषदोंमें भी सृष्टि -रचना और ईश्वरके कतिपय समालोचक एकमात्र ईश्वरमे ही ममस्त विषयमें अनेक प्रकारकी मान्यताएँ पायई जाती हैं । जगत्का निर्माण बताने वाले दर्शनको प्रमाण मानते हुए वृहदारण्यक उपनिषदमें एक स्थल पर असत्भी मुसलमान व ईसाई दार्शनिकों की इम जगत-रचना मृत्यु और क्षुधाको अभिन्न बताकर मृत्युसे जीवन, शैलीकी खिल्ली उड़ाते हैं। खुदाके इस रचनाक्रमको जल, अग्नि, लोक श्रादिकी उत्पत्ति बतलाई है। दूसरे बाज़ीगरका ग्वेल बताकर खूब उपहाम करते हैं परन्तु स्थान पर श्रात्मामे सृष्टि का उत्पत्तिक्रम मानकर कहा ऐसा करते हुए वे अपने मन्तव्यकी ओर ज़रा भी विचार गया है कि जिस समय प्रात्मामें संवेदनशक्तिका श्राविनहीं करते । वेदान्त, न्याय और वैशेषिक दर्शन ईश्वर- र्भाव हुश्रा, उस वक्त आत्मा निजको अकेला देखकर को अखिल विश्वका सर्जक मानते हैं । इन दर्शनोंके भयभीत हुश्रा । श्रात्मा पुरुष और स्त्रीमें विभक्त होगया। अाविष्कर्ताोंने भी ईश्वर और जगतके विषयमें अनेक स्त्रीने सोचा कि पुरुष मेरा उत्पादक तथा प्रणयी है, मनोरञ्जक कल्पनाएँ स्थापित की हैं; उदाहरणार्थ कुछ- इसलिये उसने गायका रूप धारण कर लिया, पुरुष भी का निर्देश करना यहाँ उपयुक्त होगा बैल बन गया । गायने बकरीके रूपमें तब्दीली करली, तैत्तरीय ब्राह्मणका अभिमत है कि सृष्टि रचनाके बैल भी बकरा बन गया । इसी तरह सिंह-सिंहनी आदि पहले पृथ्वी, आकाश आदि किसी भी पदार्थका युगलोंका प्रादुर्भाव हुआ। एक जगह ब्रह्मसे लोकका अस्तित्व नहीं था । प्रजापतिको एकसे अनेक होने की सृजन मानकर लिखा है कि ब्रह्मने अपने में पर्ण-शक्तिइच्छा हुई,एतदर्थ उसने घोर तपश्चरण किया,तपश्चरण- का अभाव देख ब्राह्मणादि चारों वर्णोका निर्माण के प्रभावसे धूप, अग्नि, प्रकाश, ज्वाला, किरणें और किया । छान्दोपनिषद्में असत्को अण्डा बताकर वाष्प उत्पन्न हुए । उत्पन्न होने के बाद ये पदार्थ जम अण्डे के फटनेसे पृथिवी, आकाश श्रादि समस्त संसारकी "कर अत्यन्त कठिन होगये, इससे प्रजापतिका लिंग फट उत्पत्ति बतलाई है। "गया और उससे समुद्र बह निकला । अपने ठहरनेको इस उपयुक्त निर्देशमें जहाँ ईश्वर ब्रह्मा या
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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