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________________ दर्शनोंकी स्थूल रूपरेखा [ले०-श्री पं० ताराचन्द जैन, दर्शनशास्त्र विश्वके रहस्यको स्पष्ट प्रकट करने वाले उपाय, उलझी हुई घटनाएँ नज़र आने लगती हैं और उस हेतु अथवा मार्गको 'दर्शन' कहते हैं; या यं कहिये घटना के विवेचनमें यह कहावत अक्षरशः चरितार्थ होने कि जिसके द्वारा संसारकी कठिनसे कठिन उलझी हुई लगती है-'ज्यों केराके पातके पात-पातमें पात' । इतने गुत्थियाँ सुलझाई जाती हैं उसका नाम 'दर्शन' है । दुरूह, अत्यन्त गढ़ और दुरवबोध विश्वतत्वके रहस्य के जिस प्रकार संसारकी प्राकृतिक रचना-पर्वत, समुद्र, खोज निकालनेका भार दर्शन (IPhilosophy) ने स्थल, देश, नद-नदी, पशु, पक्षी, झरना, जल-प्रपात अपने ऊपर लिया है । दार्शनिकका भावुकतापूर्ण हृदय आदिके मौन्दर्य और भयंकरताको देखकर कविका हृदय अपनी सामर्थ्य भर इस रहस्य के ग्बोजनेमें तन्मय हो प्लावित हो जाता है । म हृदय कवि जीवन के उत्थान जाता है। पतनकी घटनाओंस अपनेको पृथक् नहीं रख सकता, जानी हुई दुनियाँ में सुदीर्घ कालमे अनेक दार्शउनमें तन्मय हो जाता है और भावनापूर्ण कविका हृदय निक होते चले आय हैं, उनमें जिनकी जहाँ तक मूझ संमारके परिवर्तनोंस सिहर उठता है । उसी प्रकार दार्श- और प्रतिभा पहुँच सकी वहाँ तक उन्होंने विश्व के रहस्य निकका प्रतिभापर्ण मन भी मंमारकी उथल-पुथल और की विशद एवं भद्र विवेचनाएँ की हैं । अनेकोंने अपना जीवनकी विषम-अवस्थाओंसे निजकोदूर नहीं रग्ब सकता माग जीवन विश्व प्रपंच के ममझने तथा ममझकर उन्हींमें घुल मिल-सा जाता है । दार्शनिक उन सब उसको मानव-ममा न के मामने रग्वनेमें लगाया है। अवस्थाश्रोंकी गुत्थियोंको मुलझानेका पर्ण प्रयास करता बहुतसं दर्शन उत्पन्न होने के बाद अपने जन्मदाताओं के है । मैं क्या हूँ ? यह संसार क्या है ? मैं कहाँस प्राया माथ ही विलीन होगये और कतिपय दर्शन अपने अनु और मुझे कहां जाना है ? इत्यादि प्रश्नोंकी उधेड़ बुनसे यायियोंकी पिरलता अादि उपयुक्त माधनाभावके कारण दार्शनिकका मस्तिष्क सराबोर रहता है । इसी तरहके अपनी नन्हों सी झाँकी दिखाकर नाम शेष होगये । प्रश्नोंकी उपज ही दर्शन शास्त्रका श्राद्य स्थान है और जिन दर्शनोंके आविष्कारोंने अपने दर्शनोंका संसारमें इस तरहके प्रश्न प्रायः प्रत्येक दार्शनिकके उर्वर प्रचार किया और लोगों के एक बड़े समूहको अपने मत मस्तिष्कमें उत्पन्न हुआ करते हैं। का अनुयायी बनाया, वे आज भी मारमें जीते-जागते विश्व के रहस्यका उदघाटन करना कितना कठिन नजर आ रहे हैं। जो दर्शन आज भी मानव-समाजके है, यह एक दार्शनिक ही समझ सकता है। कोई एक मामने मौजूद है, व मभी उच्च, पूर्ण-सत्य एवं निदोष मामूली सी घटनाको ही ले लीजिये; जब उस घटनाका नहीं कहे जा सकते । इनमें कोई विरला दर्शन ही विश्लेषण करने लगते हैं तो उसमें उसी तरह की अनेक उच्चतम, सर्वसत्वहितैषी, पर्णसत्य और निर्दोष होना
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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