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________________ शिकार २०० विचारोंका यातायात ! प्रेमकी साधनामें कितना अनुराग रखता है-वह 'मूर्ख, हिरण ! नहीं जानता कि जिसने हिर- अपनी पत्नीके प्रति कितना महान्दय रखता है, रणीका प्राणान्त किया है, वह इसे कब छोड़ेगा? कितना भादर्श है वह !' । फिर भी भागता वहीं,बरता नहीं ! प्रतिहिंसा जैसी शिकारीकी भांखोंमें करुणा-जम सबला घातकता. उनके मनमें टकरा रही.. है ! प्रेमक़ी पाया ! हिरणीकी मृतक-देह अब उसे अपनी भूल रचताल-तरंगें, प्राणों के मोहको भुलाए दे रही हैं ! की तरह दिखाई देनेलगी,डरने लगा बह-अव! मोहोहः-प्रेम ! तूने इस जंगली जीवको भी अपने काश ! वह अब किसी तरह उसे जीवित कर काबू में कर रखा है ! वह प्रेमकी समाधिमें लीन सकता!... होकर अपने प्राणोंकी पाहुति देते भी नहीं भय- तृणोंमें अमृतका स्वाद लेने वाले वह दोनों भीत होता ! मूक-प्रणयी, अपनी निर्धन, साधन-शून्य, उजड़ी ___ शिकारी देख रहा है-वियोगी-हिरण अपनी सी दुनिया में प्रेमकं बल पर स्वर्गका स्थापन कर प्रणयकी दुनियाको, अपनी दुलारी हिरणीको, रहे थे ! आह ! उमे भी मैं न देख सका ! मुझ-सा एकटक देख रहा है ! समझ नहीं पा रहा कि उस अधम और कौन होगा ? कितना भयंकर अपराध की हिरणी भर चुकी है,उसकी दुनिया उजड़ चुकी किया है. मैंने !.."जिनके पाम प्राणोंके सिवा है ! वह इतना ही जानता है कि इसे कुछ हो गया और कुछ नहीं था! जो दरिद्रताकी सीमा थे। है ! वैसा हो गया है,जैसा अबतक कभी नहीं हुआ उनका वह छोटा-सा धन, थोड़ी मी इच्छा, और सर्प-विष-संहारक वायगीकी तरह वह हिरणीके मीमिन-मा मौख्य भी मैंने छीन लिया ! उफ् ! क्षत-विक्षत-शरीर के समीप-कुछ अटल-मा, कुछ यह घोर-पाप !!!' विह्वल-सा कुछ ध्यानस्थ सा बैठा आंसू बहा रहा कौन मी लेखनी ऐसी है, जो हिग्णकी मर्माहै ! जैसे प्रेम-मंदिरमें, रूठी हुई प्रेमकी देवीको, न्तक पीडाको ठीक ठीक चित्रण कर मकं ?... प्रेम-पुजारी मना रहा हो!" उसके भीतर शिकारीकी महानुभूति जैमें घुमती __ शिकारीका मन भर आया । उसे ऐमा लगा जा रही हो ! उमकी विकलता प्रतिक्षण बढ़ती जा जैसे उसके हृदय-कंजको किसीने भीतर हाथ डाल रही है ! वह रो रहा है, उसकी आँखें रोरही हैं, कर मरोड़ दिया हो, उमके मुँह पर जैसे अमा- उमका हृदय रो रहा है। वस्याकी कालिमा बिखरादी। 'यह क्या किया मैंन ? एक निरपराध सुखमानव-मन !!! मय, दाम्पत्तिक-जीवनमे आग लगा दी ! मैंने नहीं वह मोचने लगा-'कितना अगाध-स्नह है समझा कि दुमरकं प्राण भी अपन में ही प्राण हैं, इसे ? कपट-हीन, बनावट-हित जैसे राकाकी उस भी दुख-सुखका अनुभव होता है ! वह भी चांदनी । वह ज्ञानवान नहीं है ! अपनको मभ्य अपना-सा ही हृदय रखता है !"भोफ:समझनेका दावा भी वह नहीं करता। लेकिन- स्वार्थी-विश्व : अपने अपने स्वार्थमें मनुष्य
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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