SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 313
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २० अनेकान्त [माघ, बीर-निर्वाण सं० करती है। अन्धा हो रहा है ! कोई किसीकी पर्वाह नहीं पवित्र, पुनीत, आदर्श भावना हिलोरें लिया करता!' और.......? इसके बाद क्या हुआ ? हाँ, वह शिकारी अब भी है । वैसी ही इसका मुझे पता नहीं ! न 'कहानी' का उससे साधना, वैसा ही परिश्रम, वैसी ही तन्मयताको गहरा सम्बन्ध ही है ! हां, यह मैं जानता हैं, और अब भी काममें लाता रहता है ! लेकिन फर्क बतलाना भी वही शेष है, कि राजपूत नरेश, अब इतना है--अब वह पशु पंछियोंका शिकार नहीं दुनियाँकी नजर में 'राजा' नहीं है ! लोग उसे करता, उन पशु-प्रवृत्तियोंका शिकार किया करता संसार-विरक-साधु कहते हैं ! वह अब बनों है जिन्होंने उसे शिकारी बनाया ! बीहड़ोंमें रहता है ! और वासना-शून्य-हृदयमें एक 4 ग्रनरोध [श्री 'भगवत्' जैन ] (( दिखादे पथ-भृष्टोंको पंथ, जी रहे आज मृतककी भाँति, बनादे मूकोंको वाचाल ! सिखादे मरना जीने-सा ! होश उनको भी आजाए, न बाकी रहे देशको भीरुहो रहे जो दिन-दिन बेहाल !! कहलवानका अन्देशा !! बने जीवन जागतिकी ज्योति, मौत को समझ उठे खिलवाड़ ! हिमालय बने हमारा भाल, ओर मुख ज्वालामुखी पहाड़ !! हृदयमें बहे वेगके माथ, दानवी प्रकृति दूर भागे, प्रेम-गंगाकी मृदु-धारा ! प्राकृतिकताको अपनाएँ ! विश्व-भरमें फैले भ्रातृत्व, अरे ! भरदे ऐसी सामर्थ्य, शत्रु भी लगे प्राण-प्यारा ! रसातल-पथसे हट जाएँ ॥ न समझो हँसनेमें कुछ तथ्य, वेदना रहती रोने में ! बड़े गौरवकी समझो बात, दुखीके साथी होने में !! दूसरेका दुख अपना दुःख,- बनादे आँखों-सा कोमल, माननेमें 'सुखका विस्तार ! हमारा सामाजिक जीवन ! सुख-दिनोका कहना ही क्या ?- पा सकें भली-सी निधियाँ, • गोलि हा ी गंगार ॥ और मलझा पाएँ उलझन !!
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy