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अनेकान्त
[माघ, बीर-निर्वाण सं०
करती है।
अन्धा हो रहा है ! कोई किसीकी पर्वाह नहीं पवित्र, पुनीत, आदर्श भावना हिलोरें लिया करता!'
और.......? इसके बाद क्या हुआ ?
हाँ, वह शिकारी अब भी है । वैसी ही इसका मुझे पता नहीं ! न 'कहानी' का उससे
साधना, वैसा ही परिश्रम, वैसी ही तन्मयताको गहरा सम्बन्ध ही है ! हां, यह मैं जानता हैं, और
अब भी काममें लाता रहता है ! लेकिन फर्क बतलाना भी वही शेष है, कि राजपूत नरेश, अब
इतना है--अब वह पशु पंछियोंका शिकार नहीं दुनियाँकी नजर में 'राजा' नहीं है ! लोग उसे
करता, उन पशु-प्रवृत्तियोंका शिकार किया करता संसार-विरक-साधु कहते हैं ! वह अब बनों
है जिन्होंने उसे शिकारी बनाया ! बीहड़ोंमें रहता है ! और वासना-शून्य-हृदयमें एक 4 ग्रनरोध
[श्री 'भगवत्' जैन ] (( दिखादे पथ-भृष्टोंको पंथ, जी रहे आज मृतककी भाँति,
बनादे मूकोंको वाचाल ! सिखादे मरना जीने-सा ! होश उनको भी आजाए, न बाकी रहे देशको भीरुहो रहे जो दिन-दिन बेहाल !! कहलवानका अन्देशा !!
बने जीवन जागतिकी ज्योति, मौत को समझ उठे खिलवाड़ ! हिमालय बने हमारा भाल,
ओर मुख ज्वालामुखी पहाड़ !! हृदयमें बहे वेगके माथ, दानवी प्रकृति दूर भागे, प्रेम-गंगाकी मृदु-धारा ! प्राकृतिकताको अपनाएँ ! विश्व-भरमें फैले भ्रातृत्व, अरे ! भरदे ऐसी सामर्थ्य, शत्रु भी लगे प्राण-प्यारा ! रसातल-पथसे हट जाएँ ॥
न समझो हँसनेमें कुछ तथ्य, वेदना रहती रोने में ! बड़े गौरवकी समझो बात,
दुखीके साथी होने में !! दूसरेका दुख अपना दुःख,- बनादे आँखों-सा कोमल, माननेमें 'सुखका विस्तार ! हमारा सामाजिक जीवन ! सुख-दिनोका कहना ही क्या ?- पा सकें भली-सी निधियाँ, • गोलि हा ी गंगार ॥ और मलझा पाएँ उलझन !!