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________________ वर्ष ३, १२ में भी उम प्रकारके पदोंका विन्यास अथवा वैसा कथन हो सकता है । अवतरण में परम्पर कहीं कहीं प्रतिपाय विषय सम्बन्धी कुछ मतभेद भी पाया जाता है, जैमा नं० २ के 'क' -'ख' भागों को देखने से स्पष्ट जाना जाता है। ख-भाग में जब तत्त्वाथ भाष्य का सिदो के लिये चार नरकों तक और उरगों (मप) के लिए पाँच नरक तक उत्पत्ति का विधान है, तब राजवार्तिक का उरगों के लिये चार नरक तक और सिंहोंके लिये पाँच नरको तक की उत्पत्ति का विधान है। यह मतभेद एक दूसरे के अनुकरण को सूचित नहीं करता, न पाठ-भेद की किसी अशुद्धि पर अवलम्बित है; बल्कि अपने अपने सम्प्रदायक सिद्धान्त-भेदको लिये हुए है । राजवार्तिक का नरक में जीवोके उत्पादादि सम्बन्धी कथन 'तिलोय पण्णत्ती' आदि प्राचीन दिगम्बर ग्रन्थों के आधार पर अवलम्बित है ।" * प्रो० जगदीश चन्द्र और उनकी समीक्ष इसके उत्तरमे प्रो० साहवकी समीक्षाका रूप मात्र इतना ही है १२ समीक्षा -- "हम अपने पहले लेम्बमें भाष्य, सर्वार्थसिद्धि और राजवानिकों तुलनात्मक उद्धरण देकर यह बता चुके हैं कि अनेक स्थानों पर भाष्य और राजवार्तिक अक्षरशः मिलते हैं । इनमें से बहुत सी बातें सर्वार्थमिद्धम नहीं मिलतीं * देखो जैन सिद्धान्तभास्करक पूर्व भागकी तीसरी किरण में प्रकाशित 'तिलोयपण्णत्ती' का नरक विषयक प्रकरण (गाथा २८५, २८६ श्रादि), जिसमें वह विषय बहुत कुछ वर्णित है जो लेखीय न०२ के अनेक भागांमें उल्लेखित राजवार्तिक के वाक्योंमें पाया जाता 1 ०११ परन्तु वे राजवार्तिकमं ज्यों की त्यों अथवा मामूली फेर फारसे दी हुई हैं।" १२ परीक्षा - इस समीक्षा में 'विचारणा' पर क्या प्रापत्ति की गई हैं और अपने पूर्व लेख से अधिक क्या नई बात खोजकर रक्खी गई है ? इसे पाठक महज ही में समझ सकते हैं। यदि "अनेक स्थानों पर भाष्य और राजवार्तिक अक्षरश: मिलते हैं" तो इसका यह अर्थ यह कैसे हो सकता है कि राजवार्तिक में वे सब बातें ज्योंकी त्यों अथवा मामूली फेर-फार के साथ भाष्य से उठा कर रखली गई है ? खास कर ऐसी हालत में जब कि कलंक मे पहले तत्वार्थसूत्र पर अनेक टीकाएँ बन चुकी थीं, कुछ उनके सामने मौजूद भी थों और प्रस्तुत श्वेताम्बरीय माध्य को प्रो० साहब अभी तक स्वयं मूल सूत्रकार उमास्वाति श्राचार्य का बनाया हुआ 'स्वोपज्ञ भाग्य' सिद्ध नहीं कर सके हैं ? दिगम्बर उसे 'स्वापज्ञ' नहीं मानते और इन पंक्तियों का लेखक हो मानता है, जिसकी 'विचारणा' को आप समीक्षा करने बैठे हैं। यहाँ पर मैं इतना और भी प्रकट कर देना चाहता हूँ कि मेरी विचारणा के "उस दूसरे माध्य में भी उस प्रकार के पदों का विन्यास अथवा वैसा कथन हो सकता है" इस वाक्य को लेकर प्रो० साहब ने अपने इस ममीक्षा लेख के शुरू में यहाँ तक लिखने का साहस किया है "मुख्तार साहब के प्रस्तुत तस्वार्थ भाष्य के कलंक के समक्ष न होनेम जो प्रमाण हैं वे केवल इसतर्क पर अवलम्बित हैं कि इसी तरह के वाक्य विन्यास और कथन वाला कोई दूसरा भाष्य रहा होगा, जो श्राजकल
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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