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________________ भनेकात [मारिवन, वीरनिर्वाण सं०२५५० अनुलब्ध है। लेकिन यह तर्क सर्वथा निर्दोष नहीं कहा प्रतिषेधार्थमिह कायग्रहणं क्रियते ।" इससे स्पष्ट है जा सकता।" कि उक्त वार्तिक सर्वार्थमिद्धिके शब्दों पर ही अपना ___ मैंने इस प्रकारका कोई तर्क नहीं किया और न आधार रखता है. और इसलिये यह कहना कि मेरे सारे प्रमाण केवल इस तर्क पर अवलम्बिन है, यह भाष्यको 'मद्वासमयप्रतिषेधार्थ च' इस पंक्तिको बात मेरी (सम्पादकीय) 'चिारणा' स दे। कर प्रकाश उक्त वार्तिक बनाया गया हे कुछ सगत मालूम नहीं की तरह स्पष्ट है । इतने पर भी प्रो० साहवका उक्त होता । ऊपरकं मम्पूर्ण विवेचनको रोशनीमें वह लिखना दसरेके वाक्यका दुरुपयोग करना ही नहीं, और भी असंगत जान पडता है। बल्कि भारी ग़लत बयानीको लिये हुए है, और इस इस 'विचारणा' पर प्रो० साहबन पानी लिये बड़ा ही दुःसाहसका काम है । अपनी ममीक्षाका ममीक्षामें जो कुछ लिखा है वह सब इस प्रकार हैरंग जमाने के लिए अपनाई गई यह नीति प्रोफेभर १३ ममीक्षा-कायग्रहणं प्रदेशावयवबहुस्वार्थम जैसे विद्वानोंको शोभा नहीं देती। हमी प्रकारका एक द्धासमय प्रतिषेधार्थ च' भाष्यकी इम पंक्तिकी राजऔर वाक्य भी आपने मेरे नाममे अपने समीक्षालेखके वार्तिकमें तीन वार्तिक बनाई गई हैं-'अभ्यंन्तरशुरूमें दिया है, जो कुछ गलत सूचनाको लिये हुए है; कृतवार्थः कायशब्दः': 'तद्ग्राणं प्रदेशावयवबहुत्वज्ञा. और इसलिये ठीक नहीं है। पनार्थ,' 'मद्वाप्रदेश प्रतिषेधार्थ च'। कहना नहीं होगा प्रोफेसरसाहबके लेखके तृतीय भाग (नं० ३) कि वार्तिककी उक्त पंक्तियोंका साम्य मर्वार्थसिद्धि की, जिसका परिचय भी शुरूमें दिया जाचुका है, की अपेक्षा माध्यमे अधिक है। दूमरा उदाहरणअालोचना करते हुए मैंने जो 'विचारणा' उपस्थित 'नाणोः'-सूत्रके माध्यमे उमास्वानिन परमाणु का की थी वह इस प्रकार है: लक्षण बताते हुए लिखा है--'भनादिरमध्यो कि "इसी तरह भाष्यकी पक्तिको उठाकर वार्निक परमाणुः । सर्वामिद्धिकार यहाँ मौन हैं । परन्तु बनाने आदिकी जो बात कही गई है वह भी कुछ राजवातिकम देखिये-मादिमध्यान्तव्यपदेशाभावाठीक मालूम नहीं होती । अकलंकने अपने राज- दितिचेन्न विज्ञानवत ( वार्तिक ) इमकी टीका वार्तिकमें पूज्यपादकी सर्वार्थसिद्धिका प्राय: अनुसरण लिखकर अकललन भाष्यक उक्त वाक्यका ही किया है। सर्वार्थसिद्धि में पांचवें अध्यायकं प्रथम समर्थन किया है। इस तरहकं बहुतसं उदाहरण सूत्रकी व्याख्या करते हुए लिखा है--"कालो पचयते, दियं जा सकते हैं।" तस्य प्रदेशप्रतिषेधार्थमिह कायग्रहणम् ।" इसी बात .. १३ परीक्षा-'विचारणा' में उपस्थित विचार को व्यक्त करते हुए तथा कालके लिये उसके पर्याय का कोई उत्तर न देकर, यहाँ भाष्यकी जिस पंक्ति नाम 'अदा' शब्दका प्रयोग करते हुए राजबार्तिक परमे जिन तीन वार्तिकोंक बनानेकी बात कही में एक वार्तिक "श्रद्धाप्रदेशप्रतिषेधार्थ च" दिया है गई है वह समुचित प्रतीत नहीं होती; क्योंकि और फिर इसकी व्याख्यामें लिखा है--"भद्धाशम्दो "अभ्यन्तरकृतेवार्थ कायशब्द" इम वार्तिककी भाष्य निपातः कालवाची सवयमाववरणः तस्य प्रदेश की उक्त पंक्ति परसं जरा भी उपलब्धि नहीं होती,
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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