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________________ ७२० अनेकान्त ११ परीक्षा — उक्त विस्तृत विचारणाकी यह समीक्षा भी क्या कोई समीक्षा कहला सकती है ? इसे तो सहृदय पाठक स्वयं समझ सकते हैं। यहां पर मैं सिर्फ इतना ही बतला देना चाहता हूँ कि जब श्री पूज्यपाद, अकलंक और सिद्धसेन के सामने दूसरे कुछ विभिन्न सूत्रपाठोंका होना पाया जाता है तथा "त एवं वर्णयन्ति "," मनुष्यादिग्रहणमनार्प - मितिसंगिरन्ते” जैसे वाक्योंके द्वारा उन पर दूसरी टीका रचे जानेका भी स्पष्ट आभास मिलता है और इस पर समीक्षा में कोई आपत्ति नहीं को गई, तब अमुक सूत्रोंके प्रस्तुत भाष्य में मिलने मात्र से, जिसमें एक योगीकरणकी बात भी आजाती है, यह कैसे कहा जा सकता है कि "कलंकका लक्ष्य इसी भाष्यकं सूत्रपाठकी ओर था ?" क्या प्रो० साहबके पास इस बात की कोई गारण्टी हैं कि अमुक सूत्र उन दूसरे सूत्रपाठोमे नहीं थे ? यदि नहीं, तो फिर उनका यह नतीजा निकालना कि "ककलंका लक्ष्य इसी भाष्यकं सूत्रपाठकी ओर था" कैसे संगत हो सकता है ? ऐसा कहनेका तब उन्हें कोई अधिकार नहीं । उनके इस कथन मे तो ऐसा मालूम होता है कि शायद प्रो० साहब यह समझ रहे हैं कि सूत्रों परसे भाष्य नहीं बना किन्तु भाष्य परसं सूत्र निकले हैं और सूत्रपाठ भाष्य के साथ सदैव तथा सर्वत्र नत्थी रहता है ! यदि ऐसा है तो निःसन्देह ऐसी समझकी बलिहारी है !! [ प्राश्विन, वीर निर्वाण सं० २४६६ प्रतियो में 'अल्पारम्भपरिग्रहत्वं मानुषस्य" और स्वभावमार्दवं च "येदोनों सूत्र अपने इसी रूपमें पाये जाते हैं, टीकाओं में भी इनके इसी रूपका उल्लेख है और इनके योगीकरणका वह रूप नहीं बनता जो प्रस्तुत माध्यमे उपलब्ध होता है । इसके सिवाय जब प्रो० साहब के पास भाण्डारकर इन्स्टिटयूटकी प्रतिके आधार पर लिये हुए राजवार्तिक के पाठान्तर हैं और पं० कैलाशचन्द्र जी की माफत बनारसका प्रतिके पाठों का भी अपने परिचय प्राप्त किया है तब कम से कम अपनी उन प्रामाणिक प्रतियां के आधार पर ही आपको यह प्रकट करना चाहिये था कि उनमे उन दोनों मूत्र के क योगीकरणका वही रूप दिया है जो प्रस्तुत श्वेताम्बरीय भाष्य में पाया जाता है। ऐसा न करके 'संभवत:' और 'शायद' शब्दों का सहारा लेते हुए उक्त कथन करना आपत्तिमे बचनेके लिये व्यर्थकी कल्पना करनेके सिवाय और कुछ भी अर्थ नहीं रखता । आपत्ति बचनेका यह कोई तरीका नहीं और न इसे समीक्षा ही कह सकते हैं । प्रो० साहब के लेख के चौथे नम्बर के 'ख' भाग पर विचार करने के अनन्तर मैने उनके लेख के नं २ पर, जिसका परिचय भी शुरू में दिया जा चुका है, जो 'विचारणा' लिखी थी वह इस प्रकार है : रही “अल्पारम्भपरिग्रहत्वं" आदि सूत्रकी मुद्रणसम्बन्धी अशुद्धिकी बात, यह कल्पना आपत्ति से बचनेके लिये बिल्कुल निरर्थक जान पड़ती है; क्योंकि दिगम्बर सूत्रपाठकी सैंकड़ो हस्तलिखित "ऐसी हालत में यह स्पष्ट है कि अकलंक देव के सामने कोई दूसरा ही भाष्य मौजूद था । जब दूसरा ही भाष्य मौजूद Its तब लेख के नं० २ में कुछ अवतरणों की तुलना पर से जो नतीजा निकाला गया अथवा सूचन किया गया है वह सम्यक प्रतिभासित नहीं होता - उस दूसरे भाष्य
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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