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[चैत्र, बीर-निर्माण सं०१६
इस स्त्रका प्रायः वही श्राशय है जो उमास्वातिके स्वातिके तत्त्वार्थसूत्रमें नहीं है। 'मातेरावतयोवृदिहासौपट्समगाभ्यामुत्सपियवसर्पि- मनुष्यतिरश्वामुष्ट-जघन्यायुषी त्रिपल्योपमातखीम्याम्' इस सूत्र नं. २ का है।
मुहूतौ ॥१८॥ विदेहेषु सन्ततश्चतुर्थः ॥१२॥
___ मनुष्य और तिचोंकी उत्कट भायु तीन पल्मकी "विवोत्रों में सदा चौषा काय वर्तता है। और जन्म मा अन्तर्मुहुर्तकी होती है।
इस आशयका कोई सूत्र उमास्वातिके तत्वार्थसूत्र उमास्वातिके "नस्थितिपरापरे निपल्योपमान्तमें नहीं है। सर्वार्थसिद्धिकारने 'विदेहेषु संख्येयकालाः' मुहूर्ते" और "तिग्योनिजाना च" इन दो सूत्रों (१८, सूत्र की व्याख्या करते हुए 'तत्र कालः सुषमदुःपमा- ३६) में जो बात कही गई है वही यहां इस एक सूत्रों म्तोपमः सदाऽवस्थितः इस वाक्यके द्वारा वहाँ सदा वर्णित है-अक्षर भी अधिक नहीं हैं। चतुर्थ कालके होनेको सूचित किया है ।
इति श्रीवृहत्प्रभाचन्द्रविरचिते तत्त्वार्थसूत्रे आर्या म्लेच्छाश्च नरः ॥१३॥
तृतीयोध्यायः ॥३॥ 'मनुष्य मार्य और म्लेच्छ होते हैं।
'इस प्रकार श्रीवृहत्यमाचंद्र-विरचित तत्वार्थसूत्रमें यह सूत्र और उमास्वातिका 'मायाँ म्लेच्छारच'
च' तीसरा अध्याय समाप्त हुभा।' सूत्र (नं० ३६) एक ही श्राशयके हैं। इममें 'नर' पद 'नृ' शब्दका प्रथमाका बहुवचनान्तपद है, जो यहाँ
चौथा अध्याय अधिक नहीं, किन्तु कथन-क्रमको देखते हुए आवश्यक जान पड़ता है।
दशाष्टपंचमभेदभावन-व्यन्तर-ज्योतिष्काः ॥१॥ त्रिषष्ठि 'शलाकापुरुषाः ॥१४॥
'भवनवासियों, न्यन्तरों और ज्योतिषियों के क्रमशः एकादशरुद्राः ॥१५॥ नवनारदाः ॥१६॥
दश, पाठ और पाँच भेद होते हैं।
भवनवामी आदि देवोंकी यह भेद-गणना उमाचतुर्विशति कामदेवाः ॥१७॥ 'सठ शखाका पुरुष होते हैं।
स्वातिके “दशाष्टपंचद्वादशविकल्पाः कल्पोपपत्रपर्यंताः" 'न्यारह रुख होते हैं।
सूत्र (नं० ३) में पाई जाती है। 'नव नारव होते हैं।
वैमानिका द्विविधाः कल्पजकल्पातीत भेदात् ॥२॥ 'चौबीस कामदेव होते हैं।'
'वैमानिक ( देव ) कल्पन और कल्पातीतके भेदसे इन चारों सूत्रोंके आशयका का कोई भी सूत्र उमा- दो प्रकारके होते हैं।
इस सूत्र विषयके लिये उमास्वातिके तत्त्वार्थसत्र में श्वेिताम्बरीय सूत्रपाठमें यह सूत्र भी नहीं है। ® यह सूत्र भी श्वेताम्बरीय सूत्र पाठमें नहीं है। मुहूतौ । सलाका।
था। ३ता