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________________ वर्ष, निव प्रभाचन्द्रका तत्वार्यसूत्र 'वैमानिकाः' और 'कल्पोपपञ्चाः करपातीतास' ऐसे दो उमास्वातिने 'परावर्षसहजावि प्रथमावास्' इत्यादि सूत्र पाये जाते हैं। अनेक सूत्रोंमें इसी आशयको वर्णित किया है। इस सौधर्मादयः षोडशकल्पाः ॥२॥ सूत्रका 'सामान्यतया' पद खास तौरसे ध्यान देने योग्य. 'सौधर्म भादि सोबह करप ।' है, और उससे विशेषावस्थामें किसी अपवादके होनेकी इस सूत्रमें कल्पोंकी संख्या १६ निर्दिष्ट करनेसे भी सूचना मिलती है। 'आदि' शब्दके द्वारा ईशान आदि उन १५ स्वर्गोंका इति श्रीवृहत्प्रभाचंद्रविरचिते तत्त्वार्थसूत्रे संग्रह किया गया है जिनके नाम उमास्वातिके दिगम्बर चतुर्थोध्यायः ॥४॥ पाठानुसार १६ वे सूत्रमें दिये हैं। 'इस प्रकार श्री पृहप्रमाचंद्रविरचित तत्वार्यसको ब्रह्मालयाः लौकांतिका ॥४॥ चौथा अध्याष पूर्व हुमा।' 'लौकान्तिक (देव) बमकल्पके निवासी होते है। पांचवाँ अध्याय यह सूत्र और उमास्वातिका 'ब्रह्मलोकालया लोकान्तिकाः' सूत्र प्रायः एक ही है। पंचास्तिकायाः||१॥ प्रेवेयकाचा अकल्पाः ॥शा 'पाँच मस्तिकाय है।' 'प्रेषयक मादि प्रकल्प है।' यहाँ अस्तिकायके लिये पाँचकी संख्याका निर्देश यहाँ 'पादि' शब्दसे विजय, वैजयत्त, जयन्त, अ- करनेसे आगमकथित जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और पराजित और सर्वार्थसिद्धि नामके उन अागमोदित वि- श्राकाश ऐसे पांच द्रव्योंका संग्रह किया गया है। इनमानोंका संग्रह किया गया है जिनका उमास्वातिके भी का अस्तित्व और बहुप्रदेशत्व गुणों के कारण 'अस्तिउक्त १६ वें सूत्रमें उल्लेख है। उमास्वातिने भी 'प्राग्न- काय' संशा है उमास्वातिने इनका संग्रह 'मजीवकावाबेयकेन्या कल्पाः' इस सूत्रके द्वारा इन्हें 'श्रकल्प' सूचित धर्माधर्माकाशपुद्गलाः' और 'जीवाश्च' इन सूत्रों किया है। (न० १, ३) में किया है। सामान्यतो देवनारकाणामुत्कृष्टेतरस्थितिस्त्रय- नित्यावस्थिताः ॥२॥ स्त्रिंशत्सागराऽयुतान्दाः ॥६॥ "पांचों अस्तिकाय) नित्य है और अवस्थित है। ___ 'सामान्यतया देवनारकोंकी उस्कृष्ट स्थिति ३३ ये पाँचों द्रव्य अपने सामान्य विशेषरूपको कमी सागर और जघन्य स्थिति • हजार वर्षकी है।' छोड़ते नहीं, इसलिये नित्य है और अस्तिकायरूपसे बो। अपनी पाँचकी संख्याका भी कमी त्याग नहीं करते1 सागरप्रयुताम्दाः, यह पाठ इसलिये ठीक नहीं चार या छह आदि रूप नहीं होते-इसलिये अवस्थित है कि 'प्रयुत शम्य .. बासका वाचक होता है। उमास्वातिका 'नित्यावस्थितान्यरूपाणि' सूत्र इस उतनी अन्य स्थितिका होना सिद्धान्तके विस सूत्रके साथ मिलता जुलता है। 'अयुत' का अर्थ जार होता है, इसलिये उसीका रूपिणः पुद्गलाः ॥३॥ प्रयोग ठीक मान पड़ता है। 'पुद्गल रूपी होते हैं।
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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