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________________ वर्ष ३, किरक १२] यह तो सभी जानते हैं कि सुख 'हित' हैं और दुःख 'अति' है अतएव इनके कारण बतलाते हैं" सर्व परवशं दुःखं सर्व आत्मवश सुखम् । वदतीति समासेन लक्षणं सुखदुःखयोः ॥” - अमितगति योगसार ३-१२ अर्थात- जो परवश (पराधीन ) होना है वह सब दुःख है, और जां स्ववश (स्वाधीन ) होना है वह सब सुख है, यह सुख-दुःखका संक्षिप्त लक्षण है । और इसलिये आत्माक साथ कर्मका जो दृढ़ बन्धन है । जिसने आत्माको मूलत: पराधीन कर रक्खा है वह सब दुःखरूप है, और उस बन्धन से जितना जितना छुटकारा मिलना ( मुक्त होना) है वह सब सुखरूप है। कर्मबन्ध होनका कारण बतलाते हैंसत्सु रागादिभावेषु बन्धः स्यात्कमणां बलात् । तत्पाकादात्मनो दुःखं तत्सिद्धः स्वात्मनो बधः ॥ — पंचा० २-०५७ प्रथम स्वहित और बाहुमें परहित क्यों ? अर्थात्-रागादिक भावोंके होने पर अवश्य कर्मबन्ध होता है और उस कमबन्धकं फलसे आमाको दुःख होता है, इसलिए रागादिक भावों में *“दुःखोवर्कमिङ्काऽहितं सुखरसोदकेँ हितं तयंताम्" । - श्रात्मप्रबोध, ३२ सर्व परवशं दुःखं सर्व आत्मवशं सुखम् । एतद्वद्यात्समासेन लक्षणं सुख दुःखयोः ॥ - मनुस्मृति ४-१६ 1 राग-द्वेष दोनों साथी हैं, जैसा कि पचाध्यायीके निम्न वाक्यसे प्रकट है " यद्यथा न रतिः पचे विपक्षेप्यरति बिना । मारतिर्वा स्वपक्षेपि तद्विपचे रतिं विना ॥ २-५४३ ६६१ अपने आत्माका घात होता है, यह बात सिद्ध है।। आत्मेतरागिणामंगरक्षणं यन्मतं स्मृतौ । तत्परं स्वात्मरक्षायाः कृतं नातः परत्र यत् ॥ . - पंचा० २-०१६ अर्थात - आत्मा मे भिन्न दूसरे प्राणियोंके शरीर की रक्षाका जो विधान स्मृतिशास्त्र में है, वह केवल अपनी ही रक्षाके लिये हैं, इससे वस्तुतः दूसरोंकी रक्षाकी बात कुछ नहीं है । भावार्थ - रागादिक मात्र ही परहसा और और स्वहिसा अथवा पर श्रहित और स्व-अहित होनक कारण हैं। और भस्पष्ट कहा हैअर्थाद्रागादयो हिसा चास्त्यधर्मो व्रतच्युतिः । अहिसा तत्परित्यागो व्रत धर्मोऽथवा किल ॥ - पंचा० २०७५५ अर्थात- रागादिक भाव ही हिंसा है, अधर्म है, व्रतच्युति है । और रागादिक-त्याग ही अहिसा है, धर्म है, व्रत है । श्रप्रादुर्भावः खलु रागादीनां भवत्यहिसेति । तेषामेवोत्पत्तिहिसेति जिनागमस्य संक्षेपः ॥ - पुरुषार्थसि० ४४ अर्थात- रागादिक भावोंका उत्पन्न न होना ही निश्चितरूप से अहिंसा है, और उन्हीं रागादिक भावकी जो उत्पत्ति है वह हिंसा है, ऐसा जिनसिद्धान्तका संक्षिप्त रहम्य है I सर्वतः सिद्धमेवैतद् व्रतं बाह्यं दयाऽङ्गिषु । व्रतमन्तः कषायारणां त्यागः सैवात्मनि कृपा || -- पंचा० २-७१३ +" परदवर वदि विरधो मुच्चेह विविह्नकम्मेहिं । एसो जिाउयदेमो समासदो बंध-मुक्स्वस्स ॥" मोक्षपाहुड १३
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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