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प्रथम स्वहित और बादमें परहित क्यों ?
[ लेखक - श्री दौलतराम 'मित्र' ]
धर्मादेशोपदेशाभ्यां कर्तव्योऽनुग्रहः परे । नात्मव्रतं विहायास्तु तत्परः पररक्षणे ॥
- पंचाध्यायी, २-८०४
अर्थात -- धर्मका आदेश और धर्मका उपदेश देकर दूसरों पर अनुग्रह (उपकार) करना चाहिये । परन्तु आत्म व्रतको - आत्माकं हितकी बातको - छोड़कर दूसरोंके रक्षण में उन्हीं के हितसाधन मेंतत्पर नहीं रहना चाहिये ।
दहिदं कादव्वं जइ सक्कइ परहिंदं च कादव्वं । दहिदपरहिदादो आदहिदं सुट्ठ कादव्वं ॥ --- ग्रन्थान्तर- पंचा० २-८०२ अर्थात- आत्महित ( अपना हित ) मुख्य कर्तव्य है । यदि सामर्थ्य हो तो परहित भी करना चाहिये । आत्महित और परहितका युगपत प्रसंग उपस्थित होने पर दोनोंमेंसे आत्महित श्रेष्ठ है, उसे ही प्रथम करना चाहिये ।
यह एक आदेशरूप श्रगमका कथन हैं, अतएव इसमें, ऐसा क्यों करना चाहिये, इस 'क्यों' कं संतोष लायक खुलासा नहीं है। और इस 'क्यों'रू पी दरबानको संतोष कराए बिना यह किसी बातको भीतर - गले नीचे उतरने नहीं देता । श्रतएव इस लेखमें इसी 'क्यों' का खुलासा करना है । खुलासा यह है कि
आत्मप्रबोधविरहादविशुद्धबुद्धेर अन्य प्रबोधनविधि प्रति कोऽधिकारः । सामर्थ्यमस्ति तरितुं सरितो न यस्य तस्य प्रतारणपरा परतारणोक्तिः ॥ कर्तुं यदीच्छसि पर प्रतिबोधकार्य श्रात्मानमुन्ननमते ! प्रतिबोधय त्वं । चक्षुष्मतैव पुरमध्वनि याति नेतुम् अन्धेन नान्ध इति युक्तिमती जनोक्तिः ॥ - आत्मप्रबोध ४-५
अर्थ (पद्य) -
'आत्म-बोधसं शून्य जनोंको नहि परबोधनका अधिकार तरण कलासे रहित पुरुषका यथा तरण शिक्षण निःसार जो अभीष्ट पर-बोधन तुमको तो आत्मन् ! हो निजज्ञानी नेत्रवान अन्धेको खेता, नहि अन्धा, यह जग जानी"
इससे यह बात स्पष्ट होजाती है कि किमीका प्रथम तिर जाना या ज्ञानी हो जाना यद्यपि स्वहिन हुआ, तथापि वह है परहितके साघनरूप - उसमें महायक; और ऐसा स्वहित-निरत व्यक्तिडी परहित करने में समर्थ हो सकता है जो खुद ही रास्ता भला हो वह दूसरोंको रास्ते पर क्या लगा सकता है ?
हित-अहित क्या हैं, और उनके कारण क्या हैं, इस पर विचार करें:
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