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शामक प्राचीन प्रति
चार्यका होता था वही उसके प्रशिष्यकाभी रख दिया इससे यह श्लोक किसी प्राचीन ग्रन्थका जान पड़ता है। जाता था, जिस तरह धर्मपरीक्षाके कर्ता अमितगतिके नार्णवके काके लिए ये शीनों ही अन्यात ये. परदादा गुरुका भी नाम अमितमति था। बहुत संभव इसलिए उनोंने तीनोंको 'जच प्रत्यारे काकर है कि जिन शुभचन्द्र योगीको उक्त प्रति दान की गई उद्धृत कर दिया । यशस्तिलककी रचना विक्रम संवत् है, अन्धकर्ता उनके ही प्रगुरु (दादा सुरु) या प्रगुरुके १०१६ में हुई है, इसलिये शानायका समय इसके भी गुरु हो।
बादका मानना चाहिए। अभी तक ज्ञानार्णवका रचनाकाल निर्णीत नहीं शानार्णवके पृ० १७७ में एक श्लोक पुरुषासिहुआ है । उसमें प्राचार्य जिनसेनका स्मरण किया द्वयु पायका भी ('मिथ्यात्ववेदरागा'पादि)उद्धृत किया गया है, और जिनसेनने जयधवलटीकाका शेष भाग गया है, परन्तु उसके कर्ता अमृतचन्द्राचार्यका समय शकसंवत् ७५६ (वि० सं० ८८४) में समाप्त किया निश्चित् न होनेके कारण वह एक तरहसे निरुपयोगी है। था । इससे यह निश्चित होता है कि विक्रमकी नवीं पाटणकी उक्त प्रति वि० सं० १२८४ की लिखी शताब्दिके बाद किसी समय शनार्णवकी रचना हुई हुई है और मार्यिका आहिणीवाली प्रति यदि उससे होगी। कितने बाद हुई होगी यह जाननेके लिए हमने अधिक नहीं पचीस-तीस वर्ष पहलेकी भी समझ ली सानार्णवके उन श्लोकोंकी जाँच की,जिन्हें अन्धाकर्त्ताने जाय और ग्रन्थ उस प्रतिसे केवल तीस चालीस वर्ष अन्य ग्रंथोसे 'उक्त च ग्रंथान्तरे' कहकर उद्धृत किया पहले ही रचा गया हो, तो विक्रमकी बारहवीं शतान्दिके है। मुद्रित ज्ञानार्णवके पृष्ठ ७५ (गुणदोषविचार)में अन्तिमपाद तक शानार्णवकी रचनाका समय जा पहुँ. नीचे लिखे तीन श्लोक है
चता है । यद्यपि हमारा खयाल है कि शुभचन्द्र इससे ज्ञानहीने क्रिया पुसि परं नारमते फलम। भी पहले हुए होंगे। तरोश्छायेव किं लभ्या फलश्रीनष्टदृष्टिभिः ॥।॥ श्राचार्य हेमचन्द्र के योगशास्त्र और शानार्गवमें शानं पङ्गी क्रिया चान्धे निःश्रद्ध नार्थकद्वयम् । बहुत अधिक समानता है ।योगशास्त्रके पांचवें प्रकाशसे सतो ज्ञान क्रिया श्रद्धा त्रयं तत्पदकारणम् ॥२॥ लेकर ग्यारहवें प्रकाश तकका प्राणायाम और ध्यानहतं ज्ञानं क्रियाशून्यं हताचासानिनः किया। वाला भाग शानायके उन्तीसवेसे लेकर न्यालीसवें धावनप्यन्धको नष्टः पश्यमपि च पंगुकः ॥३॥ तकके मोंकी एक तरह नकल ही मालूम होती है।
यही तीनों श्लोक यशस्तिलकचम्पके छठे अाश्वास छन्द-परिवर्तनके कारण जो थोड़े बहुत शब्द बदलने (१०२७१) में ज्योंके त्यों इसी क्रमसे दिये हुए हैं। इन- पड़े हैं उनके सिवाय सम्पूर्ण विषय दोनों ग्रंथोंमें एकमेंसे पहले दो तो स्वयं यशस्तिलककर्ता सोमदेवसूरिके सा है। इसी तरह चौथे प्रकाशमें कपायजयका उपाय है और तीसरा यशस्तिलको 'उक्तं च' कहकर किसी 'इन्द्रियजय', इन्द्रिजयका उपाय 'मनः शुद्धि', उसका अन्य अंथसे उद्धृत किया गया है। अकसकदेवके राज- -
पहली प्रति मरवर (माखवा) में खिली गई थी। वार्तिकमें भी यह श्लोक थोड़ेसे साधारण पाठमेदके और दूसरी गोंय (काठियावार) में मानवे से गोंग्स साथ 'उक्तं च रूपसे उद्धृत ही पाया जाता है, और उस समयकी रस्सेि काफी दूर है।