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[माध, वीर विनाय सं०१०
इसे लिखा था जब कि पहली प्रति नृ पुरीमें श्रीशुभचन्द्र बहुत प्राचीन कालकी हों; परन्तु यह नहीं कहा जा. योगीके लिए लिखाकर दी गई थी।
सकता कि इस समय गोंदलराज्यमें दिगम्बर-सम्प्रदायके दूसरी प्रति वि० सं० १२८४ की लिखी हुई है, तब अनुयायी नहीं हैं, इसलिए पहले भी न रहे होंगे। पहली प्रति अवश्य ही उससे पचीस-तीस वर्ष पहले सानार्णवकी बीसलकी लिखी हुई उक्त प्रतिसे मालम लिखी गई होगी। नपुरी स्थान कहाँ है, ठीक ठीक नहीं होता है कि विक्रमकी तेरहवीं शताब्दिमें गोंडलमें दिकहा जा सकता । संभव है यह ग्वालियर राज्यका गम्बर-सम्प्रदाय था और उसके सहस्रकीर्ति नामक नरवर हो । नरपुर और नृपुर (स्त्रीलिंग नृपुरी) एक साधुके लिए वह लिखी गई थी। सहस्रकीर्ति दिगम्बर हो सकते हैं। नरपुरसे नरउर और फिर नरवर रूप सम्प्रदायके भट्टारक जान पड़ते हैं, और इसलिए वहाँ सहज ही बन जाते हैं।
उनके अनुयायी भी काफी रहे होंगे। गोमंडल और गोंडल एक ही हैं। गोमडलका ही उनका दिगम्बर राजकुल विशेषण कुछ अद्भुत अपभ्रंशरूप गोंडल है। अभी कुछ समय पहले डा० सा है। हमारी समझमें राजकुल राउल' का संस्कृत हँसमुखलाल सांकलियाने गोंडल राज्यके ढांक नामक रूप है । राजकुलके गृहस्थों और पदवीधारियोंके स्थानकी प्राचीन जैन गुफाओंके विषयमें एक लेख समान यह विशेषण उम समय यहाँपर भट्टारकोंके लिए प्रकाशित किया था, जहाँसे कि बहुतसी दिगम्बर भी रूढ होगया होगा, ऐसा जान पड़ता है। प्रतिमायें प्राप्त हुई हैं। यह स्थान जूनागढ़से ३० मील पहली प्रशस्तिमें एक विलक्षण बात यह है कि उत्तर-पश्चिमकी तरफ गोंडल राज्यके अन्तर्गत है । आर्यिका जाहिणीने वह प्रति ध्यानाध्ययनशाली, तपःचकि इस समय गोडल और उसके आसपास दिगम्बर- श्रुतनिधान, तत्त्वज्ञ, रागादिरिपुमल्ल और योगी शुभसम्प्रदायके अनुयायियोंका प्रायः अभाव है, इसलिए चन्द्रको भेंट की है और ज्ञानार्णव या योगप्रदीपके कर्ता ग. साहबने अनुमान किया था कि उक्त प्रतिमायें शुभचन्द्राचार्य ही माने जाते हैं । उक्त विशेषण भी उस समयकी होगी जब दिगम्बर-श्वेताम्बर भेद हुए उनके लिए सर्वथा उपयुक्त मालम होते हैं। ऐसी अधिक समय न बीता था और दोनोंमें श्राज-कलके हालतमे प्रश्न होता है कि क्या स्वयं ग्रन्थकर्ताको ही समान वैमनस्य न था । उक्त लेख जैनप्रकाश (भाग ४ उनका ग्रंथ लिखकर भेंट किया गया है ? असंभव न अक १-२) में प्रकाशित हुआ था और उसपर सम्पादक होनेपर भी यह बात कुछ विचित्रसी मालम होती है। महाशयने अपना यह नोट दिया था कि पहले श्वेताम्बर यदि ऐमा होता तो प्रशस्तिमें श्रार्यिकाकी श्रोरसे इस भी निर्वस्त्र या दिगम्बर मूर्तियोंकी पूजा करते थे। बातका भी सकेत किया जा सकता था कि शुभचन्द्र
यह बात सही है कि पहले श्वेताम्बर भाई भी योगीको उन्हींकी रचना लिखकर भेंट की जाती है । निर्वस्त्र मूर्तियोकी पूजा करते थे, लगोट आदि चिहों- इसलिए यही अनुमान करना पड़ता है कि अन्यकर्ताके वाली प्रतिमाये प्रतिष्ठित करनेकी पद्धति बहुत पीछे अतिरिक्त उन्हींके नामके कोई दूसरे शुभचन्द्र योगो ये शुरू हुई है और यह भी संभव है कि ढांककी गुफाओं जिन्हें इस प्रतिका दान किया गया है। और अक्सर की मूर्तियाँ मथुराके कंकाली टीलेकी मूर्तियों के समान प्राचार्य-परम्परामें देखा गया है कि जो नाम एक प्रा.