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शाबासकी एक प्राचीन प्रति
भावार्थ-इस नपुरी में अरहंत भगवान्के चरस- उसने निरन्तर बाम और अन्तरंग दुकर तप तपकमलोंका भ्रमर, सज्जनोंके हृदयको परमानन्द देनेवाला कर कषायरिपुत्रोंके साथ साथ अपने सारे शरीरको मी माथुरसंघरूप समुद्रको उल्लसित करनेवाला भन्यामा सुला डाला। भीनेमिचन्द्र नामका परम भावक हुआ, जिसकी उसने विनयाचार सम्पत्तिसे सारे संघकी उपासना धर्मपल्लीका नाम स्वर्णा (सोना था जो कि अखिल की और वैयावृत्ति करके अपनी कीर्तिको दिगन्तर्गतक विज्ञानकलाओंमें कुशल, सती, पातिव्रत्यादि-गुणोंसे पहुंचा दिया। भूषित और अपनी मनोवृत्तिके ही समान अव्यभिचा- जिन पौरजनोंने उसे पहले देखा था वे भी इस रिणी थी । धर्म-अर्थ और कामको सेवन करनेवाले इन तरहका वितर्क करने लगे कि न जाने या साक्षात् दोनोंके जाहिणी नामकी पुत्री हुई, जो अपने कुलरूप भारती ( सरस्वती ) देवी है या शासनदेवता है। कुमुदवनकी चन्द्रलेखा, निजवंशकी बैजयन्ती (ध्वजा) उस जाहिणी पार्यिकाने कर्मोके क्षयके लिए यह और सर्वलक्षणोंसे शोभित थी।
शानार्णव नामकी पुस्तक ध्यान और अध्ययनशाली, इसके बाद उनके राम और लक्ष्मणके समान तप और शास्त्र के निधान, तस्योंके शाता और रागादिगोकर्ण और श्रीचन्द्र नामके दो सुन्दर, गुणी और रिपुत्रोको पराजित करनेवाले मल्ल जैसे शुभचन्द्र योगीभव्य पुत्र उत्पन्न हुए।
को लिखाकर दी। __ और फिर नेमिचन्द्रको वह जिनशासन वत्सला, वैशाख सुदी १० शुक्रबार वि० सं० १२८४ को विवेक-विनयशीला और सम्यग्दर्शनवती पुत्री (जा- गोमंडल (गोंडल-काठियावाड़) में दिगम्बर राजकुल हिणी) संसारकी विचित्रता तथा नरजन्मकी निष्फलता (मट्टारक !) सहस्रकीर्तिके लिए ५० केशरीके पुत्र को जानकर तपके लिए घरसे चल दी। वह शान्तचित्त वीसलने लिखी। और अतिशय संयत थी। शास्त्रज्ञ बन्धुजनोंके प्रयल विवेचन-ऐसा मालूम होता है कि इस पुस्तकमें पूर्वक रोकनेपर भी उसके मनको प्रेम या मोहने जरा लिपि-कर्ताओंकी दो प्रशस्तियाँ है। पहली प्रशस्तिमें भी मैला न होने दिया।
तो लिपिकर्ताका नाम और लिपि करनेका समय नहीं आखिर उसने मुनियोंके चरणों के निकट आर्यि- दिया है, सिर्फ लिपि करानेवाली जाहिणीका परिचय काके व्रत ले लिये और मनकी शुद्धिसे अखंडित रत्न- दिया है। प्रयको स्वीकार किया।
हमारी समझमें प्रायिंका जाहिणीने जिस लेखकसे ___ उस विरक्ताने नवयौवनकी उम्र में ऐसा कठिन तप उक्त प्रति लिखाई होगी, उसका नाम और समय भी करना प्रारम्भ किया कि सम्जनोंने उसकी 'साधु साधु' अन्तमें अवश्य दिया होगा; परन्तु दूसरे लेखकने उक्त कहकर स्तुति की।
पहली प्रतिका वह अंश अनावश्यक समझकर छोड़ उसने यम, मन और तपके उद्योगसे, स्वाध्याय दिया होगा और अपना नाम और ममय अन्तमें लिख ध्यान और संयमसे तया कायक्रेशादि अनुष्ठानोंसे दिया होगा । इस दूसरी प्रतिके लेखक पं०केशरीके पुत्र अपने जन्मको सफल किया।
वीसल है और उन्नोंने गोडलमें श्रीसहसकीर्ति के लिए