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________________ अनेकान्त [भाद्रपद, बीर निर्वाय सं०२४ = ___ उन्होंने अपनी प्रशस्तिमें अपने लिए लिखा है माश्चर्य नहीं, जो उन्हें धाराके 'शारदा-सदन' के कि 'बिनधर्मादपा पो नखकानपुरेऽवसत्' अर्थात् जो अनुकरण पर ही जैनधर्मके उदयकी कामनासे जैनधर्मके उदयके लिए धारानगरीको छोड़कर श्रावक-संकुल नालछेके उक्त चेत्यालयको अपना नलकच्छपुर (नालछा ) में आकर रहने लगा। विद्यालय बनानेकी भावना उत्पन्न हुई हो। जैनउस समय धारानगरी विद्याका केन्द्र बनी हुई थी। धर्मके उद्धारकी भावना उनमें प्रबल थी। वहाँ भोजदेव, विन्ध्यवर्मा, अर्जुनवर्मा जैसे ऐसा मालूम होता है कि गृहस्थ रह कर भी विद्वान् और विद्वानोंका सन्मान करने वाले राजा कमसे कम 'जिनसहस्रनाम' की रचनाके समय वे एकके बाद एक हो रहे थे । महाकवि मदनकी संसार-देहमोगोंस उदासीन हो गये थे और उनका 'पारिजात-मब्जरी' के अनुसार उस समय विशाल मोहावेश शिथिल हो गया था। हो सकता है धारानगरीमें ८४ चौराहे थे और वहाँ नाना दिशा- कि नन्होंने गृहस्थकी कोई उस प्रतिमा धारण कर भोंसे आये हुए विविध विद्याओंके पण्डितों और ली हो, परन्तु मुनिवेश तो उन्होंने धारण नहीं कला-कोविदोंकी भीड़ लगी रहती थी। वहां किया था, यह निश्चय है । हमारी ममझमें मुनि 'शारदा-सदन' नामका एक दूर दूर तक ख्याति होकर वे इतना उपकार शायद ही कर सकते जितना पाया हुमा विद्यापीठ था। स्वयं पाशाघरजीने कि गृहस्थ रह कर ही कर गये हैं। धारामें ही व्याकरण और न्यायशास्त्रका अध्ययन अपने समयके तपोधन या मुनि नामधारी किया था। ऐसी धाराको भी जिस पर हर एक लोगोंके प्रति उनको कोई श्रद्धा नहीं थी, बल्कि विद्वानको मोह होना चाहिये पण्डित भाशाघरजीने एक तरहकी वितृष्णा थी और उन्हें वे जिनशासन जैनधर्मके ज्ञानको लुप्त होते देखकर उसके उदयकं को मलिन करनेवाला समझते थे, जिसको कि लिए छोड़ दिया और अपना सारा जीवन इसी उन्होंने धर्मामृतमें एक पुरातन श्लोकको उद्धृत कार्यमें लगा दिया। करके व्यक्तकिया हैवे लगभग ३५ वर्षके लम्बे समयतक नालछामें पण्डितैष्टिारित्रैः बठरैस तपोधनैः। ही रहे और वहाँके नेमि-चैत्यालयमें एकनिष्ठतासे शासनं जिनचन्द्रस्य निर्मल मलिनीकृतम् ॥ जैनसाहित्यकी संवा और ज्ञानकी उपासना करते पण्डितजी मूलमें मांडलगढ़ (मेवाड़) के रहने रहे । उनके प्रायः सभी ग्रन्थोंकी रचना नालछाके वाले थे । शहाबुद्दीन सोरीकं आक्रमणोंसे त्रस्त उक्त नेमि चैत्यालयमें ही हुई है और वहीं वे होकर अपने चारित्रकी रक्षाके लिए वे मालवाकी अध्ययन अध्यापनका कार्य करते रहे हैं। कोई ---. प्रभो भवानभोगेषु निर्विरयो दुःखमीरकः । चतुरशीतिचतुष्पथसुरसदनप्रधाने "सकलादिगम्त- एष विज्ञापयामि त्वां शरण्यं करणार्यवम् ॥३॥ रोपगतानेकविधसहएयकलाकोविदरसिकसुकविसंकुले. अद्य मोहग्रहावेशौषिल्यास्किश्चिदुन्मुखः । -पारिजातमंजरी -निमसहस्त्रनाम
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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