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पखितप्रवर पसापर
राजधानी धारामें बहुत-से लोगोंके साथ पाकर बना होगा। क्योंकि इसका कोख सं० १३०० में बस गये थे। वे व्याघेरवाल या बघेरवाल जातिके बनी हुई भनगारधर्मामृतटीकाको प्रशस्तिमें है थे जो राजपूतानेकी एक प्रसिद्ध वैश्यजाति है। १९९६ में बने हुए जिनयाकल्पमें नहीं है। यदि यह
उनके पिताका नाम सजवण, माताका श्रीरत्री, सही है तो मानना होगा कि भाशाधरजीके पिता पत्नीका सरस्वती और पुत्रका छाड़ था । इन १२९६ के बाद भी कुछ समय तक जीवित रहे होंगे चारके सिवाय उनके परिवार में और कौन कौन थे, और उस समय वे बहुत ही वृद्ध होंगे । सम्भव है इसका कोई उल्लेख नहीं मिलता।
कि उस समय उन्होंने राज-कार्य भी छोड़ दिया हो। मालव-नरेश पर्जुनवर्मदेवका भाद्रपद सुदी१५ पण्डित आशाधरजीनं अपनी प्रशस्तिमें अपने बुधवार सं० १२७२ का एक दानपत्र मिला है, पुत्र छाहड़को एक विशेषण दिया है, "रजिमशनजिमके अन्तमें लिखा है--"रचितमिदं महासान्धिः भूपतिः' अर्थात जिसने राजा अर्जुनवर्माको प्रसन्न रामा सबखणसंमतेन राजगुरुणा मदनेन । अर्थात किया । इससे हम अनुमान करते हैं कि राजा यह दानपत्र महासान्धिविप्रहिक मंत्री राजा सलख- सलखणके समान उनके पोते छाहड़को भी अर्जुनणकी सम्मतिसे राजगुरु मदनने रचा। इन्हों अर्जन- वर्मदेवने कोई राज्य-पद दिया होगा । अक्सर वर्माकं राज्यमें पं० श्राशापर नालछामें जाकर रहे राजकर्मचारियोंके वंशजोंको एकके बाद एक राज्यथे और ये राजगुरू मदन भी वही हैं जिन्हें पं० कार्य मिलते रहते हैं। पं० माशाधरजी भी कोई आशाधरजीने काव्य-शास्त्रकी शिक्षा दी थी। इससे राज्य पद पा सकते थे परन्तु उन्होंने उसकी अपेक्षा अनुमान होता है कि उक्त राजा सलखण ही संभव जिनधर्मोदयके कार्य में लग जाना ज्यादा कल्याणहै कि पाशाधरजीके पिता सल्लक्षण हों। कारी समझा। जिम समय यह परिवार धारामें आया था
उनके पिता और पुत्रके इस सन्मानसे स्पष्ट उस समय विन्ध्यवर्माके सन्धिविग्रहके मंत्री
होता है कि एक सुसंस्कृत और राज्यमान्य कुल में ( परराष्टमचिव ) विल्हण कवीश थे । उनके बाद
उनका जन्म हुआ था और इसलिए भी बालकोई आश्चर्य नहीं जो अपनी योग्यताकं कारण
सरस्वती मदनोपाध्याय जैसे लोगोंने उनका शिष्यत्व
स्वीकार करनेमें संकोच न किया होगा । सलक्षणने भी वह पद प्राप्त कर लिया हो और
वि० सं० १२४९ के लगभग जब शहाबुद्दीन सम्मानसूचक राजाकी उपाधि भी उन्हें मिली हो ।
गोरीने पृथ्वीराजको कैद करके दिल्लीको अपनी पण्डित आशाधरजीने 'अध्यात्म-रहस्य' नामका
राजधानी बनाया था और उसी समय उसने प्रन्थ अपने पिताकी मालासे निर्माण किया था।
अजमेर पर भी अधिकार किया था, तभी पण्डित यह प्रन्थ वि० सं० १२९६ के बाद किसी समय
आशाधर मांडलगढ़ छोड़कर धारामें आये होंगे। अमेरिकन मोरियंटल सोसाइटीका जर्नल था. उस समय वे किशोर होंगे, क्योंकि उन्होंने " और प्राचीन लेखमाला भाग 1 पृ०६-। व्याकरण और न्यायशास्त्र वहीं आकर पढ़ा था।