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________________ 'धवलादि-श्रुत-पारचय' का शेषांश __ (पृष्ठ १६ से आगे) प्राचार्य-परम्परासे चलकर श्रार्यमंतु और नागहस्ती यहाँ पर मैं इतना और भी बतलादेना चाहता हूँ नामके श्राचार्योको प्राप्त हुई।। इन दोनों श्राचार्योंके कि धवला और जयधवलामें गौतमस्वामीसे आचारांगपामसे गुणधराचार्यकी उक्त गाथाश्रोंके अर्थको भले धारी लोहाचार्य तकके श्रुतधर श्राचार्योंकी एकत्र गप्रकार सुनकर यतिवृषभाचार्यने उन पर चूर्णि-सूत्रोंकी गना करके और उनकी रूढ़ काल-गणना ६८३ वर्षकी रचना की, जिनकी संख्या छह हज़ार श्लोक-परिमाण देकर उसके बाद धरसेन और गुणधर श्राचार्योका है। इन चर्णि-सूत्रोंको साथमे लेकर ही जयधवला-टीका नामोल्लेख किया गया है, साथमें इनकी गुरुपरम्पराका की रचना हुई है, जिमके प्रारम्भका एक तिहाई भाग कोई ग्वाम उल्लेग्य नहीं किया गया ® और इस तरह ( २० हज़ार श्लोक-परिमाण ) वीरसेनाचार्यका और इन दोनों श्राचार्योंका ममय वीर-निर्वाणसे ६८३ वर्ष शेष (४० हज़ार श्लोक-परिमाण ) उनके शिष्य जिन- बादका सूचित किया है । यह सूचना ऐतिहासिक दृष्टिसे मनाचार्यका निग्या हुआ है। कहां तक ठीक है अथवा क्या कुछ आपत्तिके योग्य है जयधवलामें चणि सूत्रों पर लिखे हुए उच्चारणा- उमके विचारका यहाँ अवमर नहीं है । फिर भी इतना चार्य के वृनि सूत्रोंका भी कितना ही उल्लेग्य पाया ज़रूर कह देना होगा कि मूल सूत्रग्रंथीको देवते हुए जाता है परन्तु उन्हें टीकाका मुख्याधार नहीं बनाया टीकाकारका यह सूचन कुछ त्रुटिपूर्ण अवश्य जान गया है और न सम्पर्ण वृत्ति-सूत्रोंको उद्धृत ही किया पड़ता है, जिमका स्पष्टीकरण फिर किमो समय किया जान पड़ता है, जिनकी संख्या इन्द्रनन्दि श्रुतावतारमं । जायगा। १२ हज़ार श्लोक परिमाण बतलाई है। इम प्रकार संक्षेप में यह दो सिद्धान्तागमोके अव- भाषा और साहित्य-विन्यास तारको कथा है, जिनके आधारपर फिर कितने ही ग्रंथों की रचना हुई है । इसमें इन्द्रनन्दिके श्रुतावतारसे अनेक दोनो मूल मूत्रग्रंथो .. 'पटवण्डागम और कषायअंशोंमें कितनी ही विशेषता और विभिन्नता पाई जाती प्राभतकी भाषा मामान्यतः माकृत और विशेषम्पमे है, जिमकी कुछ मुग्न्य मुग्व्य बातोंका दिग्दर्शन, तुलना- जैन शौरसेनी है तथा श्रीकृन्दकुन्दाचार्यके ग्रंथोंकी त्मक दृष्टिस, इम लेखके फुटनोटोंमें कराया गया है। भाषा मिलनी-मुल्लनी है । पटवण्डागमकी रचना प्रायः इन्द्रनन्दि भुतावतार में लिखा है कि 'गुणधरा- इन्द्रनन्दिने तो अपने श्रुनावतारमें यह स्पर चार्यने इन गाथासूत्रोंको रचकर म्वयं ही इनकी न्याः ही लिख दिया है कि इन गुणधर और धरमेनाचार्षकी ख्या नागहस्ती और भार्यमंधुको बतलाई।' इसमें गुरुपरम्पराका हाल हमें मालूम नहीं है क्योंकि उसको ऐतिहासिक कथनमें बहुत बड़ा अन्तर पर जाता है। बतखाने वाले शाखों गथा मुनि-जनों का प्रभाव है।
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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