SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 582
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गोम्मटसार-कर्मकाण्डकी त्रुटि-पूर्ति [देखक-६० परमानन्द शादी] गाचार्य नेमिचन्द्र-विरचित गोम्मटसारके पठन तथा उनके कार्योंका वर्णन, क्रम स्थापन पौर पाठनका दिगम्बर जैनसमाजमें विशेष उदाहरण द्वारा स्वभाव निर्देशके अनन्तर २२वीं प्रचार है। इस ग्रन्थमें कितना ही महत्वपूर्ण गाथामें मूलकोंकी उत्तर प्रकृतियोंकी संख्याका कथन पाया जाता है, जो अन्य प्रन्थों में बहुत कम क्रमिक निर्देश किया गया है । इसके बाद अधिदेखनेमें आता है। इससे फरणानुयोगके जिज्ञासु- कार भरमें कहीं भी उत्तर प्रकृतियोंके क्रमशः नाम ओंको वस्तु तत्त्वके जानने में विशेष सहायता और स्वरूप आदिका कोई वर्णन न करके एकदम मिलती है । इस ग्रंथके दो विभाग हैं, एक जीव- बिना किसी पूर्व सम्बन्धके दर्शनावरणकर्मके नव काण्ड और दूसरा कर्मकाण्ड । इनमेंसे प्रथम भेदोंमेंसे पांच निद्राओंका कार्य २३, २४ और २५ काण्डकी रचना बहुत ही सुसम्बद्ध और त्रुटिरहित न०की तीन गाथाओं द्वारा बतला दिया गया है। है । किन्तु उसके उपलब्ध दूसरे काण्डके 'प्रकृति और इससे यह कथन सम्बन्ध विहीन तथा क्रम समुत्कीर्तन' नामक प्रथम अधिकारमें बहुत कुछ विहीन होनेके कारण स्पष्टतया असंगत जान त्रुटियाँ पाई जाती हैं, जिनके कारण उसकी रचना पड़ता है । २२वीं गाथाके अनन्तर तो मानावरण असम्बद्ध-सी हो गई है। अनेक विद्वानोंको उसके कर्मके पांच भेदों तथा दर्शनावरण कर्मके प्रथम विषयमें कितना ही सन्देह हो रहा है । मुद्वित प्रति चक्षु, अचनु आदि चार भेदों के नाम स्वरूपादिका को ध्यान पूर्वक पढ़नसे त्रुटियों और तज्जन्य वर्णन होना चाहिये था, तब कहीं पाँच निद्राओंके असम्बद्धताका बहुत कुछ अनुभव हो जाता है । कायका वर्णन संगत बैठता । परन्तु ऐसा नहीं है, यद्यपि संस्कृत और भाषा टीकाकारोंने उक्त अधि- और इसलिये यह स्पष्ट है कि यहां निद्राओंसे कारकी अपूर्णता एवं असम्बद्धताको बहुत-कुछ पर्वका कथन चित है। अंशोंमें दूर कर दिया है फिर भी उसकी मूल- (२) निद्र-विषयक २५ वी गाथाकं बाद विषयक-त्रुटियाँ अभी तक ज्योंकी त्यों बनी हुई हैं। २६ वी गाथामें बिना किसी सम्बन्धक मिध्यात्व पाठकोंकी जानकारीके लिये यहां उनमें से कुछ -:खास खास त्रुटियोंका दिग्दर्शन कराया जाता है:- 1 वह गाथा इस प्रकार है: (१) एक 'प्रकृति समुत्कीर्तन' नामक मधि- पंच जब दोषिण मडावीसं चउरो कमेण तेषग्दी । कारमें कर्मकी मूल भाव प्रकृतियों के नाम, पण, ते उत्तर सर्व वा हुग पवर्ग उत्तरा होति ॥२२॥
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy