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________________ अनेकान्त [ज्येष्ठ, मापार, वीर निर्वावसं. द्रव्यके तीन भेद किस तरह हो जाते हैं, यह टीकाकारोंने पूरा किया है। कथन किया गया है, न कि कयनको संगत (५) अंगोपांग-विषयक २८ वी गावाके बाद बनानेके लिये यह भावश्यक था. कि क्रन विहायोगति नामकर्म तथा छह संहननोंके नाम माप्त वेदनीयकर्म और मोहनीय कर्मके भेद-प्रमे दप्रभा और उनके स्वरूपका कोई उल्लेख न करके छह दादिका कथन किया जाता; और उसके बाद २६ संहनन वाले जीव किस किस संहननसे कौन कौन वीं गाथाको दिया जाता, जैसा कि संस्कृत और गतिमें उत्पन्न होते हैं इत्यादि वर्णन २९-३०-३१. भाषा टीकाकारान किया है। बिना एसा किय अब ३२ नं. की चार गाथायों में किया गया है। और सन्दर्भके साथ यह गाथा संगत मालूम नहीं होती वर्णन भी मात्र वैमानिक देवों तथा नारकियोंमें और अपनी स्थिति परसे इस बातको सूचित उत्पत्ति के नियमका निर्देश करता है तथा कर्म करती है कि उससे पहलेकी कुछ गाथाएँ वहाँ छूट भूमिको त्रियोंके अन्तके तीन संहननोंका हो उदय बतलाता है। शेष मनुष्य तिर्यंचोंमें कितने संहननों (३) दर्शनमोह-विषयक २६ वीं गाथाके बाद का उदय होता है ऐसा कुछ भी नहीं बतलाया चारित्र मोहनीय कर्मके २५ भेदों और भायु कमेके और न गुणस्थानों, कालों अथवा क्षेत्रोंकी दृष्टि से चार भेदोंका तथा नाम कर्मकी पिण्ड-अपिण्ड ही संहननोंका कोई विशेष कथन किया है । ऐसी प्रकृतियोंक उल्लेखपूर्वक गति-जातिविषयक त हालतमें उक्त चारों गाथाओंका वर्णन असंगत योंका कोई वर्णन न करके और शरीरके नामों तक होने के साथ साथ अधुरा और लॅडूरा जान पड़ता का उल्लेख न करके २७ वी गाथामें मौदारिकादि है। इन गाथाओंके पर्वमें तथा मध्य में भी कितना पांच शरीरोंके संयोगी भेदोंका कथन किया गया ही कथन छूटा हुआ मालूम होता है। है। इससे इस गाथाकी स्थिति भी २६ वी गाथा जैसी ही है और यह भी अपने पूर्व में बहुतसं कथन इन गाथाओंकी ऐसी स्थिति देखकर ही भाज के त्रुटित होनेको सूचित करती है। . से कोई २१ वर्ष पहले पं० अर्जुनलालजी सेठीने (४) २८ वीं गाथाको स्थिति भी उक्त दोनों 'सत्योदय' पत्रमें लिखे हुए अपने स्त्री-मुक्ति' नामक गाथाओं जैसी ही है, क्योंकि इसके पर्वम शरीर निबन्धमें कर्मकाण्डके उक्त 'प्रकृति समुत्कीर्तन' के वन्धन, संघात और सस्थान नामक भेद-प्रमंदों अधिकारको त्रुटि-पूर्ण एवं सदोष बतलाते हुए का तथा अंगों पांग नामके मौदारिकादि मुख्य संहनन-विषयक उक्त चारों गाथाभोंको क्षेपक तीन भेदोंका भी कोई वर्णन अथवा उल्लेख न करार दिया था और यह भी बतलाया था कि इन करके, इसमें मात्र शरीरके आठ अंगोंके नाम दिये का संकलन यहाँ पर अनुपयुक्त है। हैं और शेषको उपांग बतलाया है। बन्धनादिका मोटी मोटी त्रुटियोंके इस दिग्दर्शन परसे कोई उक्त सब कथन बादको भी नहीं किया गया है भी सहृदय विद्वान यह नहीं कह सकता कि नेमिऔर इसलिये यह सब यहाँ पर त्रुटित है, जिसे चन्द्र जैसे सिद्धान्त पक्रवर्ति विद्वान् प्राचार्य ने
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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