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अहिंसा
[10-बी बसन्तमार, एम.एस.सी.]
वनका ध्येय निरन्तर विकसित होना है। वि- नारकीयता और अशान्तिके दर्शन होते हैं। जीवकी
कासकी पूर्णावस्था जीवनकी यह स्थिति है प्रवृत्तियों में ज्यों ज्यों इस स्वकेन्द्रीकरणकी मात्रा कम हो पाँचकर विश्वके जीवन के साथ उसका कोई विरोध होती जाती है त्यो त्यों वह अधिक विकसित होता चला न रह सके। विकासको यह अन्तिम अवस्था है और जाता है। जीवनका श्रादर्थ है । ज्यों ज्यों इस श्रादर्शकी ओर हम संसारकी अशान्ति और अराजकताका मूल कारण बढ़ते है त्यो स्यों हम सस्यके निकट पहुँचते हैं । इस प्रवृत्तियोंका स्व-केन्द्रीकरण है । एक व्यक्ति दूमरे व्यक्ति प्रकार विकासकी ओर बढ़नेका मार्ग सत्यकी शोध और की सम्पदाको हड़प कर सुखी बनना चाहता है, एक विश्व-कल्याणका मार्ग है।
समाज दूसरे समाजको बर्बाद कर अधिक शक्तिशाली जीवकी सारी प्रेरणायें और प्रक्रियायें सुखी बनने बननेकी कल्पना करता है। अधिक व्यापक रूपमें एक के लिये होती है, और ज्यों ज्यों उसकी प्रसुप्त शक्तियाँ राष्ट्र दूसरे राष्ट्र पर अधिकार कर अपना प्रभुत्व बढ़ाने विकसित होती जाती है वह सुखकी ओर बढ़ता जाता में लगा हुआ है । पंजीवाद, साम्राज्यवाद, नाजीवाद, है। विकास और सुख एक ही वस्तु के दो भिन्न भिन्न तथा फैसिजम ये सब प्रवृत्तियोंके स्व-केन्द्रीकरणके पहल है, अथवा यो कहिये सिक्केकी दो तरफ (Sides) आधार पर ही स्थिर है। इसीलिये उनका परिणाम है हैं। एकके बिना दूसरेका अस्तित्व नहीं। जितना हमारा दुःख और अशान्ति । प्रवृत्तियोंके इस स्त्र केन्द्रीकरणको जीवन अविरोधी और विकसित होगा उतनी ही मात्रामें देखकर शायद नैोने इस सिद्धान्तका प्रतिपादन हम अधिक सुखी होंगे। जीवन-सम्बन्धी सारी समस्याओं किया था कि जीवकी मूलभावना लोकमें शक्ति (प्रभुत्व) पर इसी स्वयंसिद्धिको लेकर विवेचन किया जा सकता प्राप्त करना है । वर्तमान जर्मनी नैशेके विचारोंका
मूर्तिमंत रूप है। नशेके इस सिद्धान्तको लेकर हम संसारके प्राणियोंके जीवनकी प्रवृत्तियाँ अधिकांशमें किसी भी प्रकारको स्थायी सामाजिकव्यवस्थाको कल्पना स्व-केन्द्रित (Self centred) होती हैं। अर्द्धविकसित नहीं कर सकते; उसके सारे फलितार्थ हम अराजकता
और अविकसित प्राणियों में यह बात और भी अधिक (Chaos) की ओर ले जाते हैं। मात्रामें पाई जाती है । उनका प्रत्येक कार्य अपने तय संसारके दुःखोंको किस प्रकार दूर किया जा अस्तित्वको कायम रखने के लिये होता है । जीवनको सकता है ? जब तक व्यक्ति के स्वार्थका समाजके स्वार्थ इस होड़ में एक प्राणी दूसरे प्राणीका पाहार बना हुआ के साथ अविरोधीपन नहीं होता तब तक न तो व्यक्ति
इसीलिये जीवनके इस स्तरमें आपको बीभत्सता, ही सुखी हो सकता है और न समाजही सुखका अनुः