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________________ ३९१ भव कर सकता है। जीवकी प्रतियां जब पतिको परिणाम स्वीकार करके एक महत्वपूर्ण तथ्यको भुला घोड़कर समरिकी भोर बदने बगती है तबही उस देते हैं। वे यह नहीं सोचते किन बुराइयोका मूलबस्तुका जन्म होता है जिसे हम 'अहिंसा' पाते हैं। कारण संगठित-हिंसा-बारा व्यवस्थित हमारे कानून और 'सर्वभूतहित' और 'निष्कामकर्म' के सिद्धान्त 'अहिंसा' विधान में और इसी कारण विज्ञान के प्राविकार शोषण के ही दूसरे रूप हैं । अहिंसाकी व्यापक भावना 'सर्व- के साधन बन जाते हैं। भन-हित' में समाई हुई है। साम्यवाद समाजके दुखोंको नष्ट करनेके लिए जिस प्रकार गुरुत्वाकर्षण शक्ति (Force of आगे बढ़ता हुआ प्रतीत होता है, लेकिन समाजके gravitation) अनन्त श्राकाशमें तारों, प्रह-नक्षत्र लिए व्यक्तिके जीवनको यांत्रिक बना कर वह ऐसा इत्यादिको एक व्यवस्थामें बाँधे हुए हैं, उसी प्रकार करना चाहता है, और जब बीवन मशीनकी तर अहिंसा में भी संसारको व्यवस्थित करनेकी शक्ति संनिः काम करने लगता है तो विकास और सुख स्वप्नकी हित है । हिंसा हमारी राजनैतिक-आर्थिक-सामाजिक- वस्तु बन जाते हैं। इस प्रकार साम्यवाद जिन बुराकठिनाइयों का मूल कारण है और अहिंसा उनको दूर इयोंको दूर करनेकी प्रतिशा करता है उन्हींमें उलझता करनेका साधन है। हुआ प्रतीत होता है। अहिंसा जीवनको यंत्रवत् नहीं अव्यवस्थित वर्गीकरण और शोषण समाजके बनाती, वह जीवनमें 'मास्मोपम्प-मुरि' जागृत कर दुखका मूल कारण है । मौजूदा राजनैतिक तथा समाजहितमें प्रवृत्त होने के लिये प्रेरणा करती है। आर्थिक कानून और विधान 'सगठिन-हिंसा' को जन्म साम्यवाद सार्वजनिक हितके लिये हमारी प्रवृत्तियों पर देते हैं। इसका परिणाम यह होता है कि अल्पसंख्यक बन्धन लगाता है, अहिंमामें हमारी प्रवृत्तियाँ स्वतः ही वर्गके हाथमें शक्ति श्राजाती है और वह उमका उप- लोक-हितके लिये होती हैं । साम्यवाद मनोविज्ञानकी योग समाजके बहुसंख्यक वर्गके शोषण में करता है। अबहेलना करता है, अहिंसा मनोविज्ञानको साथ लेकर संसारकी अधिकतम शासन-व्यवस्थायें संगठित हिंसाका मनुष्यकी वृत्तियोंको शुद्ध करती हुई विकासकी ओर मूर्तिमंत रूप हैं। हिटलर यदि पोलैंड पर अाक्रमण ले जाती है । इसलिये कोई भी राजनैतिक, भाषिक करता है तो इससे यह न समझ लेना चाहिए कि वा सामाजिक व्यवस्था जिसका भाधार सर्वभूतहित जर्मनी की साधारण जनता हिटलरकी इन प्रवृत्तियोंसे या पहिसा नहीं है, पपई और अधूरी है। सहानुभूति रखती है। नाज़ी सरकार संगठित हिमाके युगोंसे हिंमात्मक-व्यवस्था-बारा अनुशासित रहनेके बलपर जर्मन-जनताको युद्ध के लिये विवश करती है। कारण अहिंसात्मक व्यवस्थाकी कल्पना कुछ अजीब यही बात अन्य साम्राज्यवादी शासन-प्रणालियों पर सी मालम पड़ती है और हम सोचते हैं कि इस प्रकार लाग होती है। 'विज्ञान' को प्रौद्योगिक केन्द्रीकरण की व्यवस्थासे शायद अराजकताकी मात्रा और अधिक तथा उसके दुष्परिणाम पूंजीवाद, समाजकी बेकारी, न बढ़ जाय, लेकिन हिंसासे भी अव्यवस्था पटती नहीं, इत्यादिका दोषी ठहराया जाता है। हमारे अर्थशास्त्री और वह जान लेने पर कि समाजकी बीमारीका भी इन बुराइयोको विज्ञानके आविष्कारोका स्वाभाविक कारण हिंसा है उसके पचमें कोई दलील देने को नहीं
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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