SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 169
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ किर ] .. बंगीय विद्वानोंकी जैन-साहित्यमें प्रगति पृ०८०१-७। एवं उपरोक्त परिषद-द्वारा स्वतन्त्र अंग्रेजी में रूपसे जैनबालाविश्रामके छात्रगणोंके द्रव्यसहायसे प्रकाशित। १३. Need of the study of Jainisinइस निबन्धका हिन्दी अनुवाद भी ट्रैक्टरूपसे प्रा. Vir VIII N. I. अक्टबर १९३५ १०३७-१८ स्मानंद जैन ट्रैक्ट-सोसायटीसे प्रकाशित हुआ था। १४. Jainism in Bengal-Vir V. III N. जैनधर्मेरवैशिष्टय-भा०व०दि जैनपरिषद बिजनौर 5-12-3 पृ० ३७०.७१ से जैन ट्रैक्ट नं०१ रूपसे प्रकाशित,श्रीयुत कामता- १५. Tradition about Vanaras and प्रसादजी जैनके प्रयत्न एवं सूरतनिवासी मूलचंद Raksasns-Indian Historical quarकिशनदास कापड़ियाके आर्थिक सहायसे प्रकाशित terly V. I. पृ०७७६-८१ पृ० १५ । इसका हिन्दी अनुवाद भी उपर्युक्त १६. Pareshnath-Sanskrit Collegiate सोसायटी द्वारा प्रकाशितहो चुका है। School Magazine. जनवरी १९२५ भा०२ ५. जैन दिगेर दैनिक घटकर्म–माहित्य परिपद् पत्रिका संख्या १ भा० ३१ पृ.० ७२६-७३६ में प्रकाशित । इसका १७. समालोचनाएँ-कई जैन ग्रन्थोंकी इण्डियन भी हिन्दी अनुव सायटी द्वारा छप हिस्टोरीकल क्वार्टरली, इण्डियन कलचर व मोडर्न चुका है। रिव्यूमें प्रकाशित। ६. जैनदिगेर षोडश संस्कार-प्रका०विश्ववानी १३३४ उपर्युक्त सूची भेजने व कई बंगाली विद्वानोंके आपाढ़ प० १६०-६४ । पने सूचित करने व पत्रव्यवहारद्वारा चक्रवती ८. रक्षाबन्धन ( उपाख्यान)-प्र० एजुकेशन गजट महोदयसे मुझे अच्छी महायता मिली है, एतदर्थ ५३३१ ता• २०.२७ श्रापाद पृ० १२१४४ व श्रापको धन्यवाद देता हूँ। १०६।११० ३ श्रीमरनचन्द्रघोपाल M.A. 18. L. District ६. दीपालिका ... प्र. एजुकेशन गज़ट १३३१ ताः१३ Magistrate Coochbiharपृ० २६६-७१ भट्टाचार्य नीकी मांति श्रापका भी जनदर्शनसम्बन्धी १०. हिन्दृश्री जैन कालविभाग-प्र० 'कायस्थसमाज' अध्ययन बहुत विशाल एवं गंभीर है ! श्री भट्टाचार्य१३३२ भाद्र पृ० २६६, २७२ जीको प्रकाशन श्रव्यवस्था के कारण लिखने की ११. पार्श्वनाथ चरित्र-प्र०'तत्त्वबोधिनी' पौष १८४६ इतनी अनुकूलता नहीं रही और श्रापको बहुत अधिक पृ. २६६-६८, चैत्र पृ० ३३६-३८, जेष्ठ १८४७ अनुकुलता मिली अब भी है, अतएव अापने बहुत पृ०५०-५३,कानिक पृ०२१७-२१६ । इस स्वतन्त्र अधिक कार्य किया है। आपके विशाल कार्यकी श्रोर ट्रैक्ट रूप से प्रकाशित करना चाहिये। देखा जाय तो सब बंगीय विद्वानोंसे अधिक जैनीजमके १२. परसनाथ-प्र. "शिशुसाथी' पौष १३३३ पृ० विषयमें आपने लिखा है । अजिताश्रम लखनऊसे प्रका३५६-६१ fee The sacred books of the Jain series
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy