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________________ अनेकान्त [वर्ष ३ किरण १ जैसा स्वरूप बांधा गया है वह बिलकुल अवैज्ञानिक है। बात ज़रूर है कि जगत-रचनामें अनादिसे जीव और उसको किसी तरह भी युक्ति व बुद्धिकी कसौटी पर अजीवका ही दखल है । जीव अजीवके पृथक् करनेसे कसनेसे खरा नहीं देख सकते हैं । अनेक प्रबल बाधाएँ जगत नामके पदार्थका स्वतंत्र कोई अस्तित्व नहीं उसे जर्जरित कर देती हैं। ठहरता, इसलिये जगतको जीवाजीवात्मक कहना उपपाठक महानुभाव इस तमाम विवेचनसे समझ युक्त होगां । उत्पत्ति, विनाश और प्रौव्य--मूलरूप में गये होंगे कि ये तीनों दार्शनिक मान्यताएँ जगत-रचना- मदा स्थिर रहना--जिसमें प्रत्येक समय पाया जाय उसे की उलझनको सुलझानेमें कहाँ तक सफल हुई हैं। द्रव्य, वस्तु या पदार्थ कहते हैं । संमार में ऐसा कोई भी इनसे तो यही मालूम होता है कि या तो जगत पंच- पदार्थ नहीं है जिसमें उत्पत्ति आदि तीनों बातें एक ही भूतात्मक ही है अथवा ईश्वरात्मक या ईश्वराधीन ही कालम न पायी जाती हो-भले ही कुछ पदार्थों में है । जगत क्या है ? मैं क्या हूँ ? मुझे कहाँ जाना है ? सूक्ष्मतर होने के कारण ये स्पष्ट नज़र न अाती हों। इत्यादि समस्त प्रश्न ईश्वर वा प्रकृतिमें ही लीन हो उत्पाद न्यय ध्रौव्य पना द्रव्यका सामान्य लक्षण है, जो जाते हैं, विशेष तर्क वितर्क करनेकी कोई गुंजाइश नहीं भी द्रव्य है उममें यह अनिवार्यरूस पाया जाता है । रम्बी गई। इन तीन बातोंके बिना वस्तुका वस्तुत्व कायम ही नहीं चौथी मान्यता नीव और अजीव अथवा चेतन- रह मकता, यह मर्वथा विनुम हो जाता है । द्रव्यकी ये अचेतन विषयक है । इस मान्यताको जन्म देनेका श्रेय हालते स्वभावसे ही होती रहती हैं उपादानरूपस इनका प्रायः एकमात्र जैनदर्शनको ही है, वैसे बौद्धदर्शनादिने करनेवाला कोई विशेष व्यक्ति नहीं है । जिस तरह भी इम श्रोर झुकाव दर्शाया है, पर वह युक्ति के बलपर अमिकी ज्वाला खुद ही ऊपरकी ओर जाती है, पानी टिकता नहीं, इसलिये उसे निर्दोष नहीं कहा जासकता। ढाल भूभागकी ओर बहता है और हवा तिरछी चला अब देखना यह है कि जैनदर्शनकी मान्यतासे दार्श करती है, ठीक उसी तरह द्रव्य स्वभावसे ही प्रतिक्षण निकोंके मस्तिष्कमें उठानेवाले प्रश्नोंका उत्तर मिलता उत्पाद, व्यय ओर ध्रौव्यरूपम परिणत होता रहता है। है या नहीं? द्रव्यका यह स्वभाव ही मंगारमें अनेक परिवर्तनों तथा जैनदर्शन या उक्त मान्यताके अनुसार जगत, लोक, अलटन पलटनका मूल कारण है। विश्व या दुनियां अनादि-निधन अथवा अनादि-अनन्त जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, अाकाश और काल ये है। जगत रचनाके प्रारम्भकी कहनी उमी तरह बुद्धि- छह द्रव्य है, ये छहों द्रव्य अनादि-निधन है। परन्तु गम्य और रहस्यभरी है जैसे बीज और वृक्षकी। जिस इनमें उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य हमेशा होता रहता है, इसलिये तरह यह निश्चित नहीं कहा जा सकता कि अमुक इनके द्रव्यत्वमें कोई फर्क नहीं पाने पाता- पर्यायें ममयमें बीजसे वृक्ष अथवा वृक्षसे बीज पैदा हुआ है पलटती रहती हैं । इन छहों द्रव्योंमें श्राकाश सबसे उसी तरह जीव-अजीवसे भी जगत-रचनाके प्रारम्भका महान् है, इमके क्षेत्रका कहीं अन्त नहीं है, अनन्तानिर्णय नहीं किया जा सकता--जगत अनादि है और नन्त है। आकाशके जितने क्षेत्रमें जीव, पुद्गल, उसका कभी भी अन्त होनेवाला नहीं है। हाँ इतनी धर्म, अधर्म और कालका अस्तित्व पाया जाता है,
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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