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________________ कार्तिक. वीर निर्वाण सं०२४६६] विविध-प्रश्न ८६ उसे लोक. लोकाकाश जगत या दुनियाँ कहते हैं। स्वयं भ्रमति संसारे स्वयं तस्माद्विमुच्यते ॥ लोकाकाशमें ये पाँचों द्रव्य मदाम टमाटम भरे हुए हैं भगवद्गीताकार भी परमात्मा या ईश्वर के और भविष्यमें भी मदैव ही तरह भरे रहेंगे । हाँ, जगत्कर्तृत्व आदिके विषय में कितने ही स्पष्ट और समुदव्योमें पर्यायाश्रित संभवित परिवर्तन जरूर होगा, पर क्तिक हृदयोद्गार प्रकट करते हैं। उनका कहना है न तो ये मूल द्रव्य विनष्ट-नेस्तनाबद हो सकेंगे और न कि-'प्रभु अर्थात् ईश्वर या परमात्मालोगोंके कर्तृत्वको, इनके मिवाय अन्य द्रव्योंकी उत्पत्ति ही हो सकेगी। उनके कर्मको ( या उनको प्राप्त होनेवाले ) कमफलके 'गम्यंते जीवादयो यत्र तज्जगत अथवा लोक्यन्ते मंयोगको भी निर्माण नहीं करता। स्वभाव अर्थात् जीवादयो यत्र स लोकः' अर्थान जहाँ पर जीवादि छह प्रकृति ही मब कुछ किया करती है । विभु अर्थात् सर्व द्रव्य रहे-मालम पड़ें उम जगत् या लोक कहते हैं। व्यापी परमेश्वर किमीका पाप और किसीका पुण्य भी इगम मालम हुआ कि जीवादि छह द्रव्योंकी नहीं लता । ज्ञान पर अज्ञानका पर्दा पड़ा रहने के कारण मर्माष्टका नाम ही जगत् है, वह न किमी व्यक्ति के द्वारा प्राणी मोहित हो जाते हैं, और अपनी नाममझीके चा गया है, न उसका कोई व्यवस्थापक व पालक है कारण परमेश्वरको उस तरह मानने लगते हैं । यथाऔर न महेश्वर उसका संहार ही करता है। स्वभावसे न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः । की जगन्में नाना प्रकारके परिवर्तन होते रहते हैं । न कर्मफल संयोग स्वभावस्तु प्रवर्तते । शरीगदिम भिन्न चेतन रूपमें अहंबुद्धि रूपम नादत्ते कस्यचित्पापं न चैव सुकृतं विभुः । प्रवृत्ति होती है वहीं 'मैं' शब्दका वाच्य है । उमीको अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुन्ति जम्नवः ॥ अात्मा श्रादि कहत हैं । जीव जैम कर्म करता है उसे भग० गी०५-१४,१५ उन कर्मों-कर्तव्यों के अनुमार ही सुग्व-दुःख देने वाले ऐसी हालतमें ईश्वर के जगत्कर्तृत्व श्रादिकी म्थानोंमें जन्म लेना पड़ता है । कोई दुमरा व्यनि उम कल्पना बहुत ही निःसार है और उसका मूल कारगा किमी योनिमें न तो भेजता और न दुःख ही देता है। अज्ञानभाव है । जैन-दर्शन अर्थात् वीर-शामनकी म्वकर्मानुसार ही जीव उसका फल भोगता है और खुद मान्यता बहुत ही युक्तियुक, स्वाभाविक तथा वस्तु ही अपने प्रयत्नसे कर्मोके बन्धन तथा मंसारम मुक्त, स्थिति के अनुकूल है और हृदयको मोधी अपील करनी होता है। कहा भी है है अतः वह सब तरहस ग्रहण किये जाने के योग्य है। स्वयं कर्म करोल्यात्मा स्वयं तत्फलमरनुते । वीर संवा-मन्दिर, सरसावा, ता०१६-१०-३१ Ho--देह निमत्त किस कारणसे है ? 30-अपने कर्मों के विपाकसे । विविध प्रश्न प्र०-कों की मुख्य प्रतियां कितनी है ? उ.--आठ। 800
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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