________________
अज-सम्बोधन
(वध्य-भूमिको जाता हुआ बकरा ) हे अज ! क्यों विषएण-मुख हो तुम, शायद तुमने समझ लिया है पर किस चिन्ताने घेरा है ? अब हम मारे जावेंगे,
र पैर न उठता देख तुम्हारा, इस दुर्बल औ' दीन दशामें र खिम चित्त यह मेरा है ! भी नहिं रहने पावेंगे !! देखो, पिछली टाँग पकड़कर, छाया जिससे शोक हृदयमें
तुमको वधिक उठाता है ! इस जगसे उठ जानेका, र और ज़ोरसे चलनेको फिर, इसीलिए है यत्न तुम्हारा, धका देता जाता है !!
यह सब प्राण बचानेका !! . [२] कर देता है उलटा तुमको पर ऐसे क्या बच सकते हो, र दो पैरोंसे खड़ा कभी ! सोचो तो, है ध्यान कहाँ ? . र दाँत पीस कर ऐंठ रहा है तुम हो निबल, सबल यह घातक, र कान तुम्हारे कभी कभी !! निष्ठर, करुणा-हीन महा। कभी तुम्हारी क्षीण कुक्षिमें स्वार्थ-साधुता फैल रही है, मुके खूब जमाता है !
न्याय तुम्हारे लिये नहीं ! . अण्ड-कोषको खींच नीच यह रक्षक भक्षक हुए, कहो फिर, र फिर फिर तुम्हें चलाता है !! कौन सुने फ़रियाद कहीं !! सह कर भी यह घोर यातना, इससे बेहतर खुशी खुशी तुम
तुम नहिं कदम बढ़ाते हो, वध्य-भूमिको जा करके, कभी दुबकते, पीछे हटते, वधिक-छुरीके नीचे रख दो . और ठहरते जाते हो !!
निज सिर, स्वयं झुका करके। मानों सम्मुख खड़ा हुआ है 'आह' भरो उस दम यह कह कर, सिंह तुम्हारे बलधारी,
" हो कोई अवतार नया, आर्तनादसे पूर्ण तुम्हारी महावीरके सदृश जगतमें 'मेमे है इस दम सारी !! फैलावे सर्वत्र दया" ॥
-'युगवीर'
६