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________________ कार्तिक वीर निर्वाण सं०२४६६] दर्शनोंकी स्थूल रूपरेखा ८७ कार्यके करनेमें कोई असुविधा वा अधिक श्रम नहीं बिलकुल अभाव, कहीं पानी ही पानी, कहीं अतिवृष्टि, करना पड़ता । दूसरे अचेतन जगतकी उत्पत्ति अवेतन कहीं अनावृष्टि, कहीं अकाल-कहतका पड़ना, जहाँ परमाणुओं और कर्म-शक्ति से नहीं हो सकती; क्योंकि ज़मीन नीची होना चाहिये वहाँ उसका एकदम ऊँचा ऐनी व्यवस्थित और सुन्दर रचना जडपरमाणु व कर्म- होना और जहाँ ऊँचा होना आवश्यक था वहाँ नीचा शक्ति विचार-शून्यताके कारण कैसे कर सकते हैं ? होना, निर्जन भयंकर तों और जंगलोंमें सुन्दरजलचेतन जीवं भी चेतन जगतकी ऐसी विशेष रचना प्रपात और झरनोंका बहना, उल्कापात, महामारी, अल्पज व स्वल्पशक्तिसम्पन्न होनेकी वजह से नहीं कर डाँस-मच्छर, कीड़ा-मकोड़ा, साँप बिच्छ्र सिंह-व्याघ्र मकता, इसलिये चेतनाचेतनात्मक उभय जगत्का कर्ता अादिकी सृष्टि होना, मनुष्यमें एक धनवान दूसरा एकमात्र ईश्वर ही हो सकता है।' निर्धन, एक मालिक दुसरा नौकर, एक स्त्री-पुत्रादिके संसारके समस्त कार्य उपादान और निमित्तकारणके न होनेसे दुखी, दूसरा इन सबके रहने पर भी दरिद्रताके विना उत्पन्न नहीं होते, इसमें किसीको भी ऐतराज़ नहीं कारण महान दुखी, एक पंडित दूसरा अलका दुश्मन है और होना भी न चाहिये। परन्तु घट, वस्त्र आदिके –महामूर्ख और सोनेमें रूप होनेपर भी उमका मुगन्ध ममान सभी कार्योका कर्ता-निमित्त कारण-चेतन रहित होना, स्वादिष्ट रसभरे गन्नेमें फलका न लगना, ही हो ऐमा कोई नियम नहीं है। घास विना किसीके चन्दनके वृक्षों फलोका न होना तथा पंडितोंका निर्धन उद्यमके बारिश आदिके होनेपर स्वयं पैदा हो जाती है; और प्रायः अल्पायुष्क होना श्रादि संसार में ऐसे कार्य मूंगा, मणि, माणिक्य, गजमुक्ता आदि भी केवल वैसे देखे जाते हैं जिससे मालूम होता है कि जगतकी रचना कारण मिलनेपर प्रकृतिसे ही पैदा होते हैं, इन्हें कोई त्रुटियोंसे खाली नहीं है । और इसलिये यह जगत नहीं बनाता । यदि कही कि इन समस्त कार्योका कर्ता किमी एक सर्वज्ञ, मर्वशक्तिमान तथा व्यापक ईश्वर चही परमेश्वर है, वह ही छिपा छिपा ऐसे कार्योंको द्वारा नहीं रचा गया और न वह इसका व्यवस्थापक करता रहता है, तो घड़ा, वस्त्र धादिको भी वही क्यों ही है। एक कविने सोनेमें मुगन्ध न होने श्रादिकी नीं बना देता है जिससे कुम्हार श्रादिकी ज़रूरत ही उन वानोंको लेकर ईश्वरकी बुद्धिमत्ता पर जो कटाक्ष न रहे, जीवनकी सभी आवश्यक चीज़ोंका निर्माण वही किया है और इस तरह सृष्टिके निर्मातामें जो किमी ईश्वर कर दिया करें! जिन वस्तुश्रीका कर्ता नज़र बुद्धिमान कारणकी कल्पना की जाती है उमका उपहाम अाता है यदि उनका कर्ता ईश्वर नहीं माना जाता, तो किया है-यह कविके निम्न वाक्यमें देखने योग्य हैजिनका कर्ता सिर्फ स्वभाव है उनको क्यों ईश्वरका गन्धःसुवर्णे फसमिघुरो नाकारि पुष्पं किला सन्दनेषु । घनाया हुआ माना जाय ! विहान धनाम्गे तु दीर्घजीवी धातुः पुरा कोऽपिनदूसरे, यदि ईश्वर कार्योंका बनानेवाला होता, तो बुद्धिदोऽभूत् ॥ वे सत्र सुंदर और व्यवस्थित होना चाहिये थे। परन्तु इसलिये कहना पड़ता है कि उपर्युन, तीमरी माश्राबाद मकानोंकी छतों, श्रागन और दीवारों पर घाम- म्यतासे भी हमारे विषयका स्पष्टीकरण नहीं होता, उलटे का पैदा होना, कहीं मरुस्थल जैसे स्थानों में गनीका हम व्यर्थ के पचड़ेमें फंसे नज़र आते हैं। ईश्वर का
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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