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________________ मामोडविचार कि परमात्मा और भात्माम सिर्फ नाम मात्रका- चौदह जीवसमास हैं; न कोके क्षयोपशमसे दृष्टि मात्रका फर्क है। बकौल नाथ मा०- होने वाले लब्धिस्थान हैं, न कोके बंधस्थान हैं; इक नज़र का है बदलना, और इस जा कुछ भी न कोई उदयस्थान है न जिसके कोई स्पर्श, रस दरमियाने-मोजो कतरा गरे-दरिया कुछ नहीं। गंध, वर्ण शब्द आदि हैं, परन्तु जो चैतन्य स्वरूप है सो ही निरंजन मैं हूँ । २० । २१ । 'यहाँ और कुछ नहीं, केवल एक दृष्टि-मात्रका ___कर्मादि मलसे रहित ज्ञानमयी सिद्ध भगवान बदलना है। बंद और लहरमें कोई भेद नहीं, जैसे सिद्ध क्षेत्र में निवास करते हैं, वैसे ही मेरी दोनों नदीसे भिन्न और कोई वस्तु नहीं।" देह में स्थित परमब्रह्मको समझना चाहिए । २६ । प्रातः स्मर्णीय आचार्य देवसेनजी 'तत्वसार' जो नो कम और कर्मसे रहित, किंवलज्ञानादि में अपने शुद्धस्वरूपका वर्णन करते हुए कहते है- गुणोंस पूर्ण शुद्ध, अविनाशी, एक, आलम्बनअस्स णकोहो माणो माया खोहो व सल्ल बेस्सायो। रहित, स्वाधीन, सिद्ध भगवान हैं, सोही मैं हूँ ।२७ जाईजरा मरणं विययिरंजयो सो अहंभणियो णस्थि कलासंठाणं मग्गणगुणठाणजीवठाणायि । से पूर्ण हूँ, अमूर्तीक हूँ, नित्य हूँ. असख्यातप्रदेशी णय बद्धिबंधठाणा गोवयावाइया केई ॥२०॥ हूँ और देहप्रमाण हूँ, इस तरह अपनी आत्माको फास रस-स्व-गंधा सहादीया य जस्स णस्थि पुणो। सिद्धके समान वस्तुस्वरूपकी अपेक्षा जानना सुदो चेयण मावो पिरंगणो सो अहं भविभो ॥२१॥ चाहिये ।२८। . मलरहिनो णालमभो शिवसइ सिद्धीए जारिसो सिद्धो। अब जब आत्माकी परम स्वच्छ और निर्मल तारिमयो देहरयो परमोवंभो मुखेयब्बो ॥ २६ ॥ अवस्थाका नाम ही परमात्मा है और उस अवस्था गोफम्म कम्म रहिमो केवलवाणाइगुणसमिद्धो जो । को प्राप्त करना, अयोन परमात्मा बत्रा ही सब सोह सिद्धो सुद्धो णिच्चो एक्को गिराखंबोक ॥ २७॥ आत्माओंका अभीष्ट है तब आत्मस्वरूपका ही सिदोहं सुद्धोहं प्रणतणाणाहगुपसमिद्रोह । चितवन करना हमारा एक मात्र कर्तव्य है। देहपमायो णिच्चो असंखदेसो अमुत्तोय ॥ २८ ॥ पूज्यपाद स्वामीजी कहते हैंजिसके न क्रोध है, न मान है, न माया है, पर परास्मा स एषाहं योऽहं स परमस्ततः । न लोभ है, न शल्य है, न लेश्या है, न जन्म है, महमेव मयो पास्पो नान्यः कश्चिदितिस्थितिः । न जरा है, न मरण है, वही निरंजन कहा गया है, सोही मैं हूँ। १६ । अर्थात जो कोई प्रसिद्ध उत्कृष्ट प्रात्मा या न जिसके औदारिकादि पांच शरीर है; न परमात्मा है वह ही मैं हूँ तथा जो कोई स्वसंवेदनसमचतुरसादि ६ संस्थान हैं, न गति, इन्द्रिय गोचर मैं आत्मा हूँ सो ही परमात्मा है, इसलिये आदि चौदह मार्गणा हैं; न मिथ्यात्वादि चौदह जब कि परमात्मा और मैं एक ही हूँ, कब मेरे गुणस्थान हैं; न जीवस्थान अर्थात एकेन्द्रियादि द्वारा मैं ही पाराधन योग्य हूँ, कोई दूसरा नहीं।
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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