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________________ 我如果 अनेकां हैदराबाद निवासी ब्रह्मनिष्ठ श्रीराम गुरु कहते हैं जेने हे देव, सेतुं चैतम्प स्वयमेव । बीजो देव माने से कोई एम बन्धन सेवे होई ॥ अर्थात जिसको तू देव, चैतन्य, स्वयंप्रकाश आदि नाना नामोंसे पुकारता है, वह चैतन्यरूप देव तू स्वयं ही है। चैतन्य रूप देव तो मेरे मामा के सिवा कोई दूसरा ही है, ऐसा जो कोई मानता है, वह अज्ञानका बंदी होता है, ऐसा समझना चाहिये । अब प्रश्न होता है कि हम अपने आत्माका चिन्तवन किस तरहसे करें, क्योंकि न तो हमें आत्मा दिखाई हो देता है और कहते हैं कि न उसका कुछ रूप ही है ? यदि हम इस तरह से चिन्तवन करते हैं कि 'अहं मह्मास्मि' 'सोऽहम्' या 'एकोsहं निर्मज्ञः शुद्धो' तो हममें अहंकारका-सा समावेश होता है और भात्म-साधनाकी जगह श्रीमद्गुरु तारण तरण स्वामीजी महाराज भी अहंकारका थाना ठीक "मांजर काढून टाकलें अपने 'पडित पूजा' नामक प्रथमें कहते हैं तेथें ऊंट येऊन पड़ला" वाली मराठी कहावत होती है ? भावम ही है देव निरंजन, मातम ही सद्गुण भाई । धातम तीर्थं धर्म भातम ही तीर्थ ग्रात्म ही सुखदाई । आतमके पवित्र जलसे ही. करना अवगाहन सुखधाम यही एक गुरु, देव, धर्म, भूस और वीर्यको सतत प्रणाम । श्रीमदपरमहंस परित्राजकाचार्य ब्रह्मनिष्ठ श्री जयेन्द्र पुरीजी महाराज मंडलेश्वर इस विषय पर छ प्रकाश डालते हैं। वे कहते हैं " साधको ! भावना करो देह नहीं हूँ, “एवं इन्द्रिय, प्राण, मन और बुद्धि भी नहीं हूँ; अल्प परिच्छिन्न नहीं हूं, किन्तु सर्वान्तर्यामी साक्षी ब्रह्म ही मैं हूँ। 'अहं ब्रह्मास्मि' 'सोऽहं' '' इस गुरु मंत्रको हर वक्त अपने सामने रखो । इस मंत्र को एक बार समझकर अलंबुद्धि मत करो। बार बार इसके असली तत्वका अनुसंधान करो । यही भगवान की असली पूजा है। जैसा कि स्वामीजी बताते हैं "बार बार इसके असली तत्वका अनुसंधान करो" इस वाक्यांशसे हमें पूर्णरूपेण प्रकट होजाता है कि 'अहं ब्रह्मास्मि, या ऐसे ही दूसरे पद महंतायोतक नहीं है, वरन उनमें कुछ महत्वपूर्ण रहस्य छिपा हुआ है । अर्थात हे मैत्रेयी ! आत्मा ही देखने, सुनने, अपना आत्मचिन्तवन करते समय प्रत्येक मनुष्य - हिन्दी टीका 'तारनत्रिवेणी' [आवय, बीर निर्वाच सं० २०६६ भजन और निदिध्यास करने योग्य है, जिसे देखने, सुनने, समझने और अनुभव करनेसे सब कुछ जाना जाता है। प्रथश्रेष्ठ श्री बृहदारण्यकोपनिषद्, आत्मा क्या है और उसका क्या महत्व है, इस विषय पर बड़ी सूक्ष्मतासे विवेचन करता है। एक स्थल पर वह कहता है “खात्मा या अरे हव्यः स्रोतम्पो मन्तभ्यो निदिप्यासि तम्यो मैत्रेयात्मनो वा अरे दर्शनेन अक्सेन मत्याविज्ञाने नेद ं सर्वविदितम् ।
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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