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________________ २०५ जैनाचार्योका प्रभाव साधु एवं श्रावक संघ पर कर यतिनियोंको दीक्षा देना बन्द कर दिया। बहुत अच्छा था, अतः उनके नियंत्रणका बड़ा इनमें खरतर गच्छके जयपुर शाखा वाले भी एक भारी प्रभाव पड़ता था। उनके भादेशका उल्लंघन हैं। उन्नीसवीं शताब्दीके पूर्वाद्धमें तो यति लोग करना मामूली बात नहीं थी, उल्लंघनकारीको मालदार कहलाने लग गये । परिग्रहका बोझ एवं उचित दण्ड मिलता था। आज जैसी स्वच्छन्द- विलासिता बढ़ने लगी। राजसम्बन्धसे कई गांव चारिता उस समय नहीं थी। इसीके कारण सुधार जागीरके रूपमें मिल गये, हजारों रुपये वे ब्याज होनेमें सरलता थी। पर धरने लगे, खेती करवाने लगे. सवारियों पर अठारहवीं शताब्दीमें गच्छ-नेता गण स्वयं चढ़ने लगे,स्वयं गाय,भैंस,ऊँट इत्यादि रखने लगे। शिथिलाचारी हो गये, अतः सुधारकी ओर उनका संक्षेपमें इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि वे एक लक्ष्य कम हो गया। इस दशामें कई आत्मकल्या- प्रकारसं घर-गृहस्थीसे बन गये । उनका परिग्रह णेच्छुक मुनियोंने स्वयं क्रिया उद्धार किया । उनमें, राजशाही ठाट-बाट-सा हो गया । वैद्यक, ज्यो. खरतर गच्छी श्रीमवचन्द्रजी (सं० १७७७ ) तिष, मंत्र तंत्र में ये सिद्धहस्त कहलाने लगे और और तपागच्छमें श्रीसत्यविजयजी पन्यास प्रसिद्ध वास्तवमें इस समय इनकी विशेष प्रसिद्धि एवं हैं । उपाध्याय यशोविजयजी भी आपके सहयोगी प्रभावका कारण ये ही विद्याएँ थीं । अठारहवीं बने इस समयकी परिस्थितिका विशद विवरण शताब्दीकं सुप्रसिद्ध सुकवि धर्मवर्द्धनजीने भी उपाध्याय यशोविजयजीकं "श्रीमंधरस्वामी" अपने समयके यतियोंकी विद्वत्ता एवं प्रभावके विनती आदिमें मिलता है। विषयमें कवित्त रचना करके अच्छा वर्णन किया अठारहवीं शताब्दीकं शिथिलाचारमें द्रव्य है। रखना प्रारम्भ हुआ था। पर इस समय तक यति औरङ्गजेबकं समयसे भारतकी अवस्था फिर समाजमें विद्वत्ता एवं ब्रह्मचर्य आदि सद्गुणोंकी शोचनीय हो उठो, जनताको धन-जन उभय कमी नहीं थी। वैद्यक, ज्योतिष आदिमें इन्होंने प्रकारकी काफी हानि उठानी पड़ी । आपसी लड़ाअच्छा नाम कमाना प्रारम्भ किया । आगे चल इयोंम राज्यक कोष खाली होने लगे तो उन्होंने भी कर उन्नीसवीं शताब्दीसे यति-समाजमं दोनों प्रजास अनुचित लाभ उठा कर द्रव्य संग्रहकी ठान दुर्गुणों (विद्वत्ताकी कमी और असदाचार ) का ली। इससे जनसाधारणको आर्थिक अवस्था प्रवेश होने लगा। आपसी झगड़ोंने प्राचार्योंकी बहुत गिर गई; जैन श्रावकोंके पास भी नगद सत्ता और प्रभावको भी कम कर दिया। १८ वीं रुपयोंकी बहुत कमी हो गई । जिनके पास ५-१० शताब्दीके उत्तरार्द्धमें क्रमशः दोनों दुर्गुण बढ़ते हजार रुपये होते वे तो अच्छे साहूकार गिने जाते नजर आते हैं । वे बढ़ते बढ़ते वर्तमान अवस्थामें थे, साधारणतया प्राम-निवासी जनताका मुख्य उपस्थित हुए हैं । कई श्रीपूज्योंने यतिनियों का आधार कृषिजीवन था, फसलें ठीक न होने के दक्षिा करना व्यभिचारके प्रचारमें साधक समझ कारण उसका भी सहारा कम होने लगा, तब
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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