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________________ [भाषण, वीर निर्णावसं. स्वभाव ऐसा खराब हो जाता है कि उम्रभर सुधरना स्वभावोंका पुतला बन जाता है उनही अपने स्वभावोंको मुश्किल हो जाता है । खोटी संगत का भी बड़ा असर साथ लेकर वह मरता है और उनही को साथ लेकर वह होता है । जिस स्त्री को वेश्या बनकर कुशील जीवन दूसरा जन्म लेता है । यही उसका कर्मवंधन, स्वभावका बिताना पड़ता है, निर्लज्जता और मायाचार उसका ढाँचा या भाग्य है, जो वह अपने आन्तरिक भावों या स्वभाव हो जाता है । कसाई और डाक निर्दय हो जाते नीयतोंके अनुसार सदा ही बनता रहता है। हैं। पुलिस और फौजके सिपाही भी कठोर हृदय बन आज जो कपड़ा हमने पहना है, वह पाँच चार जाते हैं। जिनकी झूठी प्रशंसा होती रहती है उसको दिनके बाद मैला दिखाई देने लगता है । परन्तु क्या अपने दोष भी गुण ही दिखाई देने लगते हैं, नसीहतसे वह उसी दिन मैला हुआ है जिस दिन मैला दिखाई उसको चिड़ हो जाती है, यहाँ तक कि उसके दोष देता है ? नहीं, मैला तो वह उस दिन ही समयसे होना बताने वालों को वह अपना बैरी समझने लग जाता है। शुरू हो गया था जबसे उसको पहनने लगे थे, परन्तु ऐसा ही और भी सब बातोंकी बाबत समझ लेना शुरू २ में उमका मैलापन इतना कमती था कि दिखाई चाहिये। नहीं देता था, होते २ जब वह मैलाग्न बढ़ गया, तब इस प्रकार इस जन्ममें बने हुए हमारे स्वभावसे इस दखाई भी देने लग गया । ऐसे ही प्रत्येक समय जैसे २ जन्म में भी हमको सुख दुख मिलता है और अगले भाव जीवात्माके होते हैं; बुरी या भली जैसी नीयत जन्ममें भी । मरने पर दुनियाकी कोई चीज़, जीव या उसकी होती रहती है. वैमा ही रंग उस जीवात्मा पर अजीव, हमारे साथ नहीं जाती है । इस जन्मके हमारे चढ़ता रहता है । उसकी आदत या स्वभाव बनता सुग्व-दुखके सब सामान यहीं रह जाते हैं, अपनी जानमें रहता है। भी ज्यादा प्यारे स्त्री, पुत्र, इष्टमित्र और धन-सम्पत्ति सब यहीं रह जाती है, यहां तक कि हमारा शरीर भी ना भाग्य किस प्रकार सुधारा जा सकता है जिससे कि हमारा जीव बिल्कुलही एकमेक हो रहा था अपने ही हाथों डाली इन आदतों या सस्कारोंका यहीं रह जाता है । इसी कारण हमारे इस शरीरमें जो बिल्कुल ही ऐमा हाल होता है जैसा कि नशा पीकर आदतें पड़ गई थीं, जिनको हम अपनी ही श्रादतें माना पागल हुए मनुष्यका हो जाता है, वह सर्व प्रकारकी करते थे, वे श्रादते भी शरीरके साथ यही रह जाती हैं। उलटी-पुलटी क्रिया करता है, बेहदा बकता है और यही नहीं बल्कि जो जो याददास्त हमारे दिमाग़में हानि लाभ का खयाल भूल जाता है। परन्तु चाहे इकट्ठी होती रहती थीं, वे भी दिमागके साथ यहीं कितना ही तेज़ नशा किया हो तो भी कुछ न कुछ शान मम्मत हो जाती हैं । परन्तु मान माया, लोम-क्रोधादिक उसमें बाकी जरूर रहता है तब ही तो कोई भारी खौफ तरगे जो हमारी अन्तरात्मामें उठती रहती है, हमारी सामने आने पर सारा नशा उतर जाता है और भयभीत अन्तरात्मामें उनका संस्कार या पादत पड़कर, हमारी होकर अपने बचाव का उपाय करने लगता है। किसी अन्तरात्मामें उनका बंधन होकर मरने पर भी वे हमारे बड़े हाकिम प्रादिके सामने आ जाने पर भी नया दूर साथ जाती हैं । यह हमारा जीवात्मा जिस प्रकारके हो जाता है। और होशकी बातें करने लग जाता है।
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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