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________________ वर, निया) अपनी-गोत्र-विषयक हैं। इस तरह पर इनके परस्परकी अपेक्षा और आर्यस्व गुणस्थानी नारकीके नीच गोत्रका उदय है की न्यूनताको प्राप्त हुये क्षेत्रादि अपर्ण पार्योंकी क्योंकि नारकीके मम्यक्त्वसे मनुष्यका तद्रूप अपेक्षा भी नीच गोत्र और उच्च गोत्र दोनों के उदय इन मम्यक्त निर्मल होता है । मिध्यादृष्टि तिचकी म्लेच्छोंमें सिद्ध है। अपेक्षा सम्यक्त्वी नारकीके उस गोत्रका उदय है। म्लेच्छोंमें उपयुक्त प्रकारसे उच्च गोत्रोदय तथा इसी सम्यक्त्वी तिर्यचकी अपेक्षा सम्यक्त्वी नारकीके तरह पर अपूर्ण पार्योम भी नीच गोत्रोदय मानने पर नीच गोत्रका उदय है क्योंकि नारकीके सम्यक्त्वसे विद्यानन्द स्वामीके आर्य म्लेच्छ विषयक स्वरूप कथनसे तिर्थचका तद्रूप सम्यक्त्व अपेक्षाकृत अच्छा विरोध भी नहीं पा सकता, क्योंकि उन्होंने पार्योंमें, होता है। उच्च गोत्रोदय, आर्यत्वके क्षेत्रादि रूपोंकी, और उच्चा- इसके अतिरिक्त नारकियोंमें परस्परकी अपेक्षा चरणोंकी अधिकताको अपेक्षा कहा है तथा म्लेच्छोमें मे भी उप व नीच गोत्रका उदय पाया जाता है। नीच गोत्रोदय, नीचाचरणोंकी अधिकताकी अपेक्षा सातवें नरकके नारकियोंसे ऊपरके नारकियों के कहा है । ऐसा मेरा विचार है। उत्तरोत्तर ऊँच गोत्रका है तथा उपरके नारकियोंसे नीचे के नारकियों के नीचका उदय है। मिध्यादृष्टि नारकियों में ऊँच-नीच गोत्रोदय नारकीकी अपेक्षा सम्यग् दृष्टि नारकीके उपगोत्रका. जैन मिद्धान्तमें नारकियोंमें ओ नीच गोत्रका उदय उदय है । सम्यक्त्वी नारकीकी अपेक्षा मुनि हो कहा है वह उनके विशिष्ट पापोदयकी अपेक्षा और देव मकने वाले, केवली हो मकने वाले, और तीर्थकर मनुष्यादिके मुकाविलेमें हीन होनेकी अपेक्षास कहा है, हो मकने वाले नारकियोंके उत्तरोत्तर उप गोत्रका परन्तु इसका यह प्रयोजन नहीं है कि उनमें ऊंच गोत्रका उदय है। इस तरह पर नारकियोंमें पाव नीच उदय है ही नहीं । विचार करने पर उनमें अपेक्षाकृत दोनोंका उदय पाया जाता है । इस ऊँचना-नीचता ऊंच व नीच दोनोंका उदय विद्यमान है, ऐसा प्रतीत से इनकार नहीं किया जा सकता। होता है । सामान्यतया देव-मनध्य-तिर्यचौकी अपेक्षा तो तियचोंमें ऊँच-नीच गोत्रोदय उनमें नीच गोत्रका उदय है ही, परन्तु व्यक्तिगत रूपसे मिथ्यादृष्टि असुर कुमारादि पापाचारी देवोंकी जिनागममे तिर्यचोंके जो नीच गोत्रका उदय अपेक्षा चतुर्थ गुणस्थानी, तीर्थकर व प्रकृतिवद्ध बतलाया गया है उसे देव मनुष्योंकी अपेक्षा नारकीके उच्च गोत्रका उदय है। चतुर्थ गुणम्थानी समझना चाहिये, उसे उनमें स्थायी रूपसे मान देवकी अपेक्षा चतुर्थ गुणस्थानी नागकीके नीच लेना सत्यतासे इनकार करना है, उनमे परस्परमें गांत्रका उदय है, क्योंकि नारकीसे देवका तप ऊँच नीचता प्रत्यक्ष दृष्टि गोचर होती है। पशुभोंमें सम्यक्त निर्मल होता है । मिध्यादृष्टि मनुष्यको सिंह, शादूल, हाथी, भरव, वृषभ आदि ऊँचे और अपेक्षा चतुर्थ गुणस्थानी नारकीके उच्च गोत्रका अच्छे समझे जाते हैं, तथा मर्प, वृश्चिक, शृगाल, उदय है । चतुर्थ गुणस्थानी मनुष्यको अपेक्षा चतुर्थ बिडाल आदि नीचे और बुरे समझ जाते हैं।
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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