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________________ :: 018 होनें अथवा 'पूर्णाशरूपसे श्रसंयमभाववाला होने और संयम भाव वाला न होने के कारण नीच गोत्र वाला है | उसके बीच गोत्रका उदयं है । इसलिये उसमें अधिकाँशरूपसे श्रार्यत्वकी न्यूनता होने के कारण “बच्चाचरणरूप उच्चगोत्रोदय आदि गुण वाला श्र है" यह लक्षण नहीं घटता । और जो एकसे अधिक प्रकारखे श्रार्य है, जिसमें अल्पशिरूपसे श्रार्य लकी न्यूनता है अथवा पूर्णा शरूप से श्रायत्वकी प्रादुर्भूति है, वह अल्पशिरूपसे असयमभाव वाला न होने और अधिकांशरूपसे संग्रमभाव वाला होने व पूर्णेशरूप से संयम भाव वाला होने के कारण ऊँच गोत्र वाला है । उसके ऊँच गोत्रका उदय है । इसलिये उसमें आर्यत्व की अल्पांशरूपसे न्यूनता अथवा पूर्णा शरूप में आर्यत्व की प्रादुर्भूत होने के कारण उपर्युक्त श्रार्य का लक्षण घट जाता है। जिसमें असंयम भाव अधिक और संयम भाव कम है उसे श्रसंयम की अधिकता की अपेक्षा नीच गोत्री ही कहेंगे और जिसमें संयमभाव अधिक व पूर्ण है और असंयमभाव कम अथवा नहीं है उसे संयमकी अधिकता वा पूर्णताकी अपेक्षा ॐच गोत्री ही कहेगे । अर्थात् मनुष्य में जितने अंशोंम असंयम भाव है, उतने अँोंमें उसके नीच गोत्रका उदय है और जितने अशों में समभाव है उतने शोंमें उसके उच्च गोत्रका उदय । इस तरह पर प्रत्येक मनुष्य प्राणीमं दोनों गोत्रोंका उदय समय समय पर पाया जाता है। म्लेच्छों में ऊँच-नीच गोत्रोदय यद्यपि भी विद्यानंदाचार्यने नीच श्राचरणरूप नीचगोत्रोदय श्रादि लक्षण वालोंको म्लेच्छ कहा है तथापि उनमें उच्च गोत्रोदय मी कहा जा सकता है । उच्च गोत्रोदय पाया भी जाता है । यद्यपि उच्चाचरण अनेकान्त [ आश्विन, वीर निर्वाण सं० २४६६ रूप उच्चगोत्रोदय श्रादि गुणवाले क्षेत्रादि पाँचों प्रकारके श्रार्यत्वकी पूर्णताको प्राप्त हुये श्रायकी अपेक्षा उनमें नीच गोत्रका उदय ही पाया जाता 1 तथापि उनमें म्लेच्छों म्लेच्छोंकी अपेक्षा परस्पर में, उच्च गत्र और नीच गोत्र भी पाया जाता है । उदाहरणके लिये जिन्हें हम म्लेच्छ समझते हैं उनमें सुना जाता है कि एक बादशाह ऐसे त्यागी हुये हैं जो राज्य कोषसे एक पैसा भी अपने भरण पोषण के लिए न ले कर किसी दूसरे प्रकारसे -- अपने स्वयं शरीरसे परिश्रम करके -- श्राजीविका करते थे और अपना व अपनी रानीका भरण पोषण करते थे दूसरे एक अपने शरीर से भी अतिशय निस्पृह और दयालु महानुभाव उनमें हुये हैं, जो अपने शरीर के व्रणोंमें पड़े हुए क्रमियों ( कीड़ों) को व्रणोंमेंसे गिर जाने पर भी उठा उठा कर पीछे उन व्रणों में ही रख लिया करते थे । और तीसरे एक ऐसे दानी बादशाह भी उनमें हो गये हैं जो दीन दुखियोंकी पुकारको बहुत ही गौर ना करते थे और उन्हें बहुत ही अधिक धन दानमें दिया करते थे। आज भी उनमें अनेक दानी, त्यागी, सत्य वादी, दयालु और अपनी इन्द्रियों पर काबू रखने वाले मौजूद हैं, जिनकी उदारता, सहायता और परोपकारता श्रादिसे कितने ही लोग उपकृत हुए हैं और हो रहे हैं। अनेक गरीब तो उनकी कृपासे लक्ष्मापति तक बन गये हैं। इस प्रकार इन म्लेच्छों की उदारता, दानशीलता निस्पृहता आदि उच्च गोत्ररूप उच्चाचरणके कई दृष्टान्त दिये जा सकते हैं नीच गोत्ररूप नीचाचरणोंके दृष्टान्तोंके लिखने की तो यहां कोई श्रावश्यकता ही नहीं क्यों कि असमर्थों पर इनके किये हुये हजारों जुल्म प्रसिद्ध ही हैं, और श्राज भी ये लोग नाना प्रकार के अगणित श्रमानुषिक, जुल्म गरीबों पर किया ही करते
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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