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तामिल भाषाका जैनसाहित्य
ले०-प्रोफेयर ए. चक्रवर्ती, एम.ए. भाई ई. एस., [अनुवादक-पं० सुमेरचन्द दिवाकर न्यायतीर्थ शास्त्री बी. ए., एलएन. बी., सिवनी]
[१०वी किरण से आगे] कछ विद्वानों का कहना है कि वह ग्रन्थ आठवीं नादियार सातवीं सदीके बादका होना चाहिए। ७ सदीका होना चाहिए,कारण उसके एक या दो यह तर्क भी त्याज्य है, कारण वे जैन विद्वान, जो पद्योंमें 'मुत्तरियर' शब्द पाया जाता है। उनके संस्कृत तथा तामिल इन दोनों भागोंमें निपुण ये, कथनका आधार यह है कि यह 'मुत्तरियर' शब्द सम्भवतः पुरातन संस्कृत सूक्तियोंसे सुपरिचित थे, पल्लवराज्यकं भीतर रहने वाले एक छोटे नरेशको जिन्हें भर्तृहरिन अपने ग्रंथमें शामिल किया है। घोषित करता है। यह परिणाम केवल इस एक यदि आप यह माने कि नादियारके लिए जिम्मेदार शब्दके साथ की अल्प शाब्दिक साक्षीके आधार पर जैन मुनिगण कुंदकुंदाचार्य के नेतृत्व वाले द्राविड़ है । इसके सिवाय और कोई साक्षी नहीं है, जिससे संघके सदस्य थे, तब भी इम रचनाको प्रथम इस नरेशका नन जैन साधुओंमें सम्बन्ध स्थापित शताब्दीके बादका सिद्ध नहीं किया जा मकता। किया जाय, जो इन पद्योंके निर्माणके वास्तव में इस प्रसंगम यह उल्लेख करना उचित है कि तामिल जिम्मेदार थे। इसके सिवाय 'मुत्तरियर' शब्दका भाषाकी प्रख्यात टीकाओंमें बहुत प्राचीन-कालसे अर्थ 'मुक्ता-नरेश', जो पाँड्य नरेशोंको सूचित नालदियारके पद्य उद्धृत हुए पाए जाते हैं। इन करता है, भी भली भांति किया जा मकना है। दो महान् अन्थोंके सिवाय नीतिक अटादशमन्थोंमें पुरातन इतिहास में यह बात प्रसिद्ध है, कि पांड्य सम्मिलित दूसरे ग्रंथ (यथा 'अररिचारम्देशमें मुक्ता-अन्वेषण एक प्रधान उद्योग था, और सद्गुण मार्गका सार, 'पलमोलि सक्तियां, ईलाति पांड्य-तटोंमें विदेशोंको मोती भेजे जाते थे। यह आदि मूलतः जैन आचार्योंकी कृतियाँ हैं । इनमेंसे सचित तथा स्वाभाविक बात है कि जैन मुनिगण हम संक्षेपमें कुछ पर विचार करेंगे। पांड्यवंशीय अपने संरक्षकका गुणानुवाद करें। १. अग्नरिचारम्-'मधर्म-म ग-मार' के एक दूमरी युक्ति और है, जिसमें यह प्रन्थ ईमाकी रचयिता निरुमुनादियार नामक जैन विद्वान हैं। पिछली शताब्दियोंका बताया जाता है । विद्वानोंका यह अंतिम संगमकालमें हुए थे। इस महान् प्रन्य अभिमत है कि हम प्रन्थके अनेक पद्योंमें भत हरि में ये जैनधर्ममें सम्बन्धित पंच मदाचारके के संस्कृत ग्रंथकी प्रतिध्वनि पाई जाती है । सिद्धान्तोका वर्णन करते हैं, यद्यपि ये मिद्धान्त भर्तृहरिका नीतिशतक लगभग ६५० ईसवी में रचा दक्षिणके अन्य धर्मोम भी पाए जाते हैं । इन गया था । अतः यह कल्पना कि जाता है, कि सिद्धान्तों को पंचत्रत कहते हैं, जो चरित्र-सम्बन्धी