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अनेकान्त
[पौष, वीर निर्वाण सं० २४६६
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है वहभी प्रायःलेखकोंकी कृपाका फल जान पड़ता प्रन्थ बनाया है। परन्तु प्रस्तुत 'प्राकृत पंचसंग्रह' है। इनके अलावा 'धवला' टीकाके अप्रकाशित की जो प्रति मेरे पास है, उसमें कर्ताका कोई नाम भागमें भी कुछ गाथाएं पंचसंग्रहकी उपलब्ध नहीं है। इधर 'दि. जैन ग्रन्थका और उनके होती हैं। जिनका पता मुख्तार श्री जुगलकिशोर- प्रन्थ नामकी पुस्तकमें वीरसेनाचार्यके ग्रन्थोंमें जीकी घवला-विषयक नोटबुकसे चला, और 'पंचसंग्रह' का कोई नाम नहीं है, और न अभी जिनमेंमे दो गाथाएं यहां नमूनेके तौरपर तक कहीं किसी ग्रन्थमें इस प्रकारका उल्लेखही उद्धृत की जाती है :
उपलब्ध होता है, जिससे इस ग्रन्थको वीरसेनाबेयश कसाय उब्धिय मारणतिमो समुग्धाओ । चार्यकी कृति माना जा सके । मालूम होता है तेजाहारो बट्ठो सत्तममो केवलीणं च ॥
बाबा दुलीचन्दजीने, जिनकी सूचीकं आधार पर -प्राकृत पंच सं०१, १९६ वेयणकसाय वेउब्वियत्रो मरणंतिओ समुग्धादो, उक्त बृहत् सूची तैयार हुई अपनी सूची में जनश्रुति तेजाहारो छट्ठो सत्तममो केवलीणं तु॥ आदिके आधारपर ऐसा लिखदिया है । उस सूचीमें -धव० पारा प्र० १० १९५
और भी बहुत से ग्रन्थ तथा ग्रन्थकर्ताओंके विषय णाणावरण चउकं दसणतिग मंतरायगे पंच । ता होति देसाई सम्म संजलण गोकसायाय ॥ में गल्ती हुई है, जिस फिर किसीसमय प्रकट करने -प्राकृत पंच सं०, ४-९६, पृ० ३५
का प्रयत्न किया जायगा। इसके सिवाय भाचार्य पाणावरणचउकं दसणतिग मंतरायगा पंच । ताहोति देशघादी सम्म संजलण णोकसायाय ॥
अमिवगतिने वि० सं० १०७३ में जो अपना -धवला० भारा प्र००३८० सस्कृत पंचसंग्रह बनाया है और जो प्रायः इसीइस सब तुलनापरसे स्पष्ट है कि प्राचार्य
के आधारपर बनाया गया है, उसमें भी पंचवीरमनके सामने 'पंच संग्रह' जरूर था, इसीसे संपर्क नामक सिवाय आचार्य वीरसेनका कोई उन्होंने उसकी उक्त गाथाओंको अपने ग्रन्थों में जिकर नहीं है । अतः इस प्राकृत पंचसंग्रहके उद्धृत किया है । आचार्य वीरसेनने अपनी कर्ता आचार्यघीरमन मालूम नहीं होते। यदि 'धवला' टीका शक सं० ७३८ (विक्रम सं०८७३) वीरसेन इमके कर्ता होते तो धवला टीकामें पंचमें पूर्ण की है । अतः यह निश्चित है कि पंचसंग्रह संग्रहकी जो गाथायें 'उक्तंच' रूपसे दीगई हैं इससे पहलेका बना हुआ है।
उनमें से किसी भी कोई विशेष पाठ-भेद न होता ___पं० कैलाशचन्द्रजी शास्त्रीने 'जैनसिद्धान्त पंच-संग्रहकी १८४वी गाथाका धवलामें पूर्वार्ध भास्कर, के ५ वें भागकी चतुर्थ किरणमें 'दि० जैन तो मिलता है परन्तु उत्तरार्ध नहीं मिलता, जिससे प्रन्थोंकी वृहत्सूची' नामका एक लेख प्रकट किया स्पष्ट प्रतीत होता है कि यदि धवलाकी तरह पंचथा, उसमें 'सिद्धान्त ग्रंथ' उपशीर्षकके नीचे संग्रह प्रन्थ के कर्वा भी आचार्य वीरसेन ही होते प्राचार्य वीरसेनके ग्रंथोंमें 'पंच संग्रह' का भी तो यह संभव नहीं था कि वे अपने एक ग्रंथमें नाम दिया गया है, जिससे मालूम होता है कि जिस पद्यको जिस रूपमें लिखते उसे अपने दूसरे प्राचार्य वीरसनने पंचसंग्रह नामका भी कोई प्रथमें 'उकंच' रूपसे देकर भी इतना अधिक बदन