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________________ कार्तिक वीर निर्वाण सं०२४६६] साहित्य सम्मेलनकी परीक्षाओं में जैनदर्शन ५७ साहित्यमें "भाषा, साहित्य, लिपि, संस्कृति, धर्म, दी जावेगी; अंतमें परीक्षा समितिका निर्णय मांगा राजनीति" आदि विभिन्न विषयोंके इतिहासकी सा- तो यही उत्तर मिला कि परीक्षा-समितिने वैकल्पिक मप्रो विपुल मात्रामें सन्निहित है । अतः प्राकृत-अप- विषयोंमें जैनदर्शनको स्थान देनेसे इन्कार करदिया भ्रंश भाषा और जैनदर्शनको इन परीक्षाओं में स्थान है। मुझे यह पढ़कर अत्यन्त आश्चर्य और खेद देना आवश्यक ही नहीं किन्तु अनिवार्य है, ऐसा हुआ ! परीक्षा-मन्त्रीजी श्री दयाशंकरजी दुबे इस मेरा विश्वास है । यही कारण है कि भारतके अ. प्रस्तावके पक्षमें थे, जैसा कि उन्होंने अपने पत्रमें नेक सरकारी विश्व-विद्यालयोंने भी प्राकृत-अपभ्रंश- स्वीकार किया है। मालूम नहीं इस प्रस्तावके वि. भाषा और जैनसाहित्यको एफ० ए०, बी० ए०, की रोधी सदस्योंकी क्या मनोभावना थी ? क्या उन्होंपरीक्षाओं तक में स्थान दे दिया है। संस्कृतके ने जैन-दर्शनसे विद्वेषकी भावनासे ऐसा किया मरकारी परीक्षालयोंमें भी प्रथमा, मध्यमा, तीर्थ, अथवा इसे निरुपयोगी ही समझा, यह कह सकना शास्त्री और प्राचार्य आदि परीक्षाओंमें जैन- कठिन है। किन्तु इतना तो अवश्य कहा जा सकता माहित्यको स्थान मिल चुका है। किन्तु खेद है कि है कि यह उनकी अनुदारता और अविचारकता मम्मेलनकी परीक्षा-समितिने इस ओर अभी कोई अवश्य है । क्या वे अब भी कृपा करके इस प्रस्ताव ध्यान नहीं दिया। इस संबंधमें मैं परीक्षा-मन्त्रीजी पर पनः समुचित विचार कर उसे स्वीकार करेंगे ? मम्मेलन प्रयागसे गत दो वर्षसे पत्र-व्यवहार कर मैं आशा करता हूँ कि वे ऐसी कृपा अवश्य करेंगे । रहा हूँ । उन्होंने सं० ६४ पत्र नं० ६५६३ में लिखा जैन-संस्था-संचालकों, जैन-पत्र-संपादकों और कि आपका प्रस्ताव परीक्षा-समिति के सामने विचा- जैनविद्वानोंसे निवेदन है कि वे ऐसा प्रयत्न करें रार्थ रक्खेंगे और निर्णयकी सूचना यथासमय कि जिमसे प्राकृत-अपभ्रंश-भाषा और जैनसा आपको दी जावेगी। फिर मेरे दूसरे पत्रके उत्तरमें हित्यको सम्मेलनकी परीक्षाओंके वैकल्पिक विषयों सं०६४ पत्र नं० ६७८४ में लिखा कि-मैं स्वयं में स्थान मिल सके । इससे अनेक जैन संस्थानोंजैनदर्शनको प्रथमा, मध्यमा परीक्षाओंके वैकल्पिक को पाठ्यक्रम-संबंधी अस्थिरता और अन्य कठिविषयों में रखने के पक्ष में हूँ। पर परीक्षा-समितिकी नाइयोंसे मुक्ति मिल मकेगी। राय लेकर ही इस संबंध निश्चित रूपसे आपको आदरणीय पं० नाथूरामजी प्रेमी, बाबू जैनेन्द्रलिख सकंगा। तीसरे पत्र नं० ८२८६ सं० ६४ में कुमारजी, पं० सुखलालजी, पं० जुगलकिशोरजी रजिस्ट्रार हिन्दी विश्वविद्यालयने मुझसे पाठ्यक्रम, मुख्तार और बाबू कामताप्रमादजी आदि विद्वान और पूरी योजना मांगी; तदनुसार मैंने पाठ्यक्रम, महानुभाव और शास्त्रार्थ संघ अम्बाला आदि जैसी और योजना भेजदी। तत्पश्चात पत्र नं० ६६६५ संस्थाएँ यदि सम्मेलनसे पत्र-व्यवहार करने मात्रका और ११४१० सं०६४ में इसी बातकी पुनरावृत्ति की थोड़ा-सा कष्ट करें तो इसमें अतिशीघ्र सफलता कि अभी परीक्षा-समितिका अधिवेशन नहीं हुआ मिल सकती है। क्या ये ऐसा करनेकी कृपा करेंगे ? है, निर्णयकी सूनना आपको यथासमय तुरन्त ही मैं इस आशाके साथ यह निवेदन समाप्त
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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