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________________ अनेकान्त [वर्ष ३, किरण प्रथम चार खंडो-१ जीवस्थान, २ दुल्लकबन्ध, बन्ध- खण्ड' के साथही समाप्त होता है-वर्गणाखण्ड उसके स्वामित्वविचय, और ४ वेदनाकी, जिसे 'वेयणकसीण- साथमें लगा हुश्रा नहीं है । पाहुड' तथा 'कम्मपयडिपाहुड' (कर्मप्रकृतिप्राभूत) भी परन्तु पं० पन्नालालजी सोनी श्रादि कुछ विद्वानोंकहते हैं, यह पूरी टीका है-इन चार खण्डोंका इसमें का खयाल है कि 'धवला' चार खण्डोंकी टीका न पूर्णरूपसे समावेश है और इसलिये इन्हें ही प्रधानतः होकर पाँच खण्डोंकी टीका है-पाँचवाँ 'वर्गणा' खण्ड इस ग्रन्थकी आधार-शिला कहना चाहिये । शेप'वर्गणा' भी उसमें शामिल है। उनकी रायमें 'वेदनाखण्ड में और महाबन्ध' नामके दो खण्डोंकी इसमें कोई टीका नहीं २४ अनुयोगद्वार नहीं हैं, 'वेदना' नामका दूसरा है और न मूल सूत्ररूपमें ही उन खण्डोंका संग्रह किया अनुयोगद्वार ही 'वेदनाखण्ड' है और 'वर्गणाखण्ड' गया है-उनके किसी-किसी अंशका ही कहीं-कहीं पर फास, कम्म, पयडि नामके तीन अनुयोगद्वारों और ममावेश जान पड़ता है। 'बन्धन' अनुयोगद्वारके 'बंध' और 'बंधणिज्ज' अधि. वर्गणाखण्ड-विचार कारोंसे मिलकर बनता है। ये फासादि अनुयोगद्वार वेदनाग्वण्डके नहीं किन्तु 'कम्मपयडिपाहुड' के हैं, जो धवल ग्रन्थमें 'बन्धस्वामित्वविचय' नामके तीसरे कि अग्रायणीय नामके दूसरे पर्वको पाँचवीं च्यवनखण्डकी समाप्ति के अनन्तर मंगलाचरणपूर्वक 'वेदना' लब्धि वस्तुका चौथा पाहड है और जिसके कदि, खण्डका प्रारम्भ करते हुए, 'कम्मपयडिपाहुड' इस वेयणा (वेदना) फासादि २४ अनुयोगद्वार हैं । 'वेदनाद्वितीय नामके साथ उसके २४ अनुयोगद्वारोंकी सूचना खण्ड' इस कम्मपयडिपाहुडका दूसरा 'वेदना' नामका करके उन अनुयोगद्वारोंके कदि, वेयणा, फाम, कम्म, अनुयोगद्वार है । इस वेदनानुयोगद्वारके कहिये या पयडि, बंधण, इत्यादि २४ नाम दिये हैं और फिर उन वेदनाखण्डके कहिये १६ ही अनुयोगद्वार हैं, जिनके अनुयोगद्वारों (अधिकारों) का क्रमशः उनके अवान्तर नाम वेदणणिक्खेव, वेदणणयविभासणदा, वेदणणामअनुयोगद्वारोंके भेद-प्रभेद-सहित वर्णन करत हुए विहाण, वेदणदव्वविहाण, वेदणखेत्तविहाण, वेदणअन्तके 'अप्पाबहुग' नामक २४वें अनुयोगद्वारकी । रिका कालविहाण, वेदणभावविहाण आदि हैं ।' समाप्ति पर लिखा है-"एवं चउवीसदिमणिश्रोगहार ऐसी राय रखने और कथन करने वाले विद्वान् समत्तं ।" और फिर “एवं सिद्धांतार्णवं पूर्तिमगमत् इस बातको भुला देते हैं कि 'कम्मपयडिपाहुड' और चतुर्विशति अधिकार २४ अणिोगद्दाराणि । नमः 'वेयणकसीणपाहड' दोनों एक ही चीज़के नाम हैं। श्रीशांतिनाथाय श्रेयस्करो बभूव" ऐसा लिखकर क्रोका प्रकृत स्वरूप वर्णन करनेसे जिस प्रकार "जस्ससेसारणमए' इत्यादि ग्रन्थप्रशस्ति दी हैं,जिसमें * देखो, 'जैनसिद्धान्तभास्कर' के पांचवें भागकी ग्रन्थकार श्रीवीरसेनाचार्यने अपनी गुरुपरम्परा आदिके तृतीय किरणमें प्रकाशित सोनीजीका 'षड्खण्डागम उल्लेखपूर्वक इस धवलाटीकाकी समाप्तिका समय कार्तिक य कातिक और प्रमनिवारण' शीर्षक लेख । भागे भी सोगीबीके शका प्रयोदशी शकसंवत् ७३८ सूचित किया है। इससे मन्तव्योंका इसी खेखके आधार पर उल्लेख किया साफ जाना जाता है कि यह 'धवल' ग्रन्थ 'वेदना- गया है।
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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