SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 769
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ७१० अनेकान्त प्रवाह मुड़कर ऊर्ध्वरूपमें बहने लगता है और बहते २ ऊर्ध्वस्थानके अन्त तक वहां घारा पहुँच जाती है, और यदि बीचमें ही उसे कोई बुरा कारण मिल गया तो वह उस बुरे कारणका निमित्त पाकर पुनः ऊर्ध्वसे अधोरूपमें बहने लगती है और बढ़ते बढ़ते अधःस्थान के अन्तको प्राप्त हो जाती है और आत्माको अपने निगोदके अविनाशी पर्याय ज्ञानमें स्थापन कर देती है । अर्थात् प्रत्येक आत्मा के अन्दर दो प्रकारके परिणाम होते हैं, एक संयमाचरणरूप परिणाम और दूसरे असंयमाचरणरूप परिणाम । काल-लब्धिका निमित्त पाकर जब यह आस्मा नित्य निगोदसे निकलता है तब अहिंसा, सत्य, शीलादिके अभ्यास साधनका अच्छा निमित्त पाकर इसके परिणाम संयमाचरणरूप होने लगते हैं। जब एक परिणाम संयमाचरणरूप होता है तब उसका निमित्त पाकर उसके संस्कारसे, उसकी संतानरूप, उससे ऊपरका, ऊँचा तीसरा परिणाम होता है; जब तीसरा परिणाम होता है तब उसका निमित्त पाकर, उसके संस्कारसे, उसकी संतानरूप, उससे ऊपर का ऊँचा चौथा परिणाम होता है। इस तरह पर पूर्व २ परिणामोंके संस्कारसे उनका सन्तान दर सन्तानरूप उत्तर- उत्तर परिणाम ऊँचेसे ऊँचे संयमाचरण रूप ( यदि बीचमें कोई हिंसा झूठ चौर्यादिके अभ्यास-साधन का निमित्त नहीं मिला तो ) ''चले जाते हैं और होते होते अन्तमें उच्चताकी सीमाको प्राप्त कर लेते हैं और श्रात्माको अपने सच्चिदानन्दरूप मोक्ष स्वभाव में स्थित कर देते हैं। [आश्विन, वीर निर्वाय सं० २०६६ रूप होने लगते हैं। जब एक परिणाम, श्रसंयमाचरण रूप होता है तब उसका निमित्त पाकर, उसके संस्कारसे उसकी संतान-रूप, उससे गिरता हुआ, नीचेका दूसरा परिणाम होता है । जब दूसरा परिणाम होता है तब उसका निमित्त पाकर, उसके संस्कार से, उसकी संतानरूप, उससे गिरता हुआ नीचे का तीसरा परिणाम होता है। जब तीमरा परिणाम होता है तब उसका निमित्त पाकर, उसके संस्कारसे, उसकी संतानरूप, उससे गिरता हुआ, नीचेका चौथा परिणाम होता है। इस तरह पूर्व पूर्व परिणामों के संस्कारसे, उनकी सतान दर संतानरूप, उत्तर उत्तर परिणाम, नीचेसे नीचे श्रसंयमाचरणरूप (यदि बीच में कोई श्रहिंमा-मत्य - शीलादिके अभ्यास arathi अच्छा निमित्त नहीं मिला तो ) होते चले जाते हैं, और होते होते अन्तमें नीचताकी सीमाको प्राप्त कर लेते हैं और आत्माको अपने अविनाशी स्वरूप वाले निगोद के पर्यायज्ञानमें स्थापन कर देते हैं । इसी तरह पर जब यह श्रात्मा मुनिपद धारण करके और ग्यारहवें गुण स्थानको प्राप्त होकर वहाँसे गिरता है तब प्रमाद, कषाय, असत्य, कुशीलादिके अभ्यास-साघन का बुरा निमित्त पाकर इसके परिणाम असंयमाचरण यहाँ पर परिणामोंके संतान दरसंतान रूपसे श्रीरूप में गिरने, और उर्ध्वरूप में चढ़नेको दृष्टान्तों द्वारा स्पष्ट किया जाता है किसी मनुष्यको दुःसंगति के कारण जूवा खेलने का व्यसन लग गया । और वह अपने मित्र जुवारियों में जाकर प्रति दिन जुवा खेलने लगा । जब अपना सारा धन जूवे में हार गया तो उसे फिर जत्रा खेलने के लिये धनकी श्रावश्यकता हुई तब उसने सोचा कि चोरी द्वारा धन प्राप्त करके जूवा खेलना चाहिये, ऐसा सोच कर वह चोरी करने लगा और चोरी में धन प्राप्त कर करके जुवा खेलने लगा । जब चोरी करने में अतिशय निपुण हो जाने के कारण चोरीमें उसे पर्यास धन मिलने लगा तो जुवा खेलनेमें हार जाने के उपरान्त भी उसके पास धन बचने लगा और बहुतसा
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy