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कार्तिक, वीरनिर्वाण सं० २४६६ ]
दशमीको कैवल्य की प्रतिष्ठा प्राप्त की थी, जिससे ज्ञेयमात्र उनके विमल ज्ञानमें विशदरूपसे श्रवभासमान होने लगे थे । क्या उस समय भगवान महावीरमें स्वामीसमंतभद्रका हेतु 'युक्ति और शास्त्र के विरुद्ध वाणी संपन्न होनेसे' प्रकटरूपसे प्रकाश में आया था ? इस विषयमें मौन ही उत्तर होगा, क्योंकि शक्ति होते हुए भी उस समय तक भगवान् की उक्त विशेषता निखिल विश्वके अनुभवगोचर नहीं हो पाई थी; कारण सर्वज्ञ होते हुए भी समुचित माधनके अभाववश उनकी दिव्यध्वनि प्रकट नहीं हुई, जिससे लोग लाभ उठाते और कृतज्ञतासूचक गुणकीर्तन करते । स्वयं मोक्षमार्ग के नेता, कर्माचल के भेत्ता तथा विश्वतत्त्व के ज्ञाताके मुखारविन्द से मुक्तिका मार्ग सुनने के भव्यात्माएँ तथा योगीजन उत्कंठित हो रहे थे, किन्तु raaraat frozariको सुननेका सौभाग्य ही नहीं मिल रहा था । ऐसी चिंतापूर्ण तथा चकित करने वाली सामग्री होने पर देवोंके अधिनायक सुरेन्द्रने अपने दिव्यज्ञानसे जाना कि भगवान मदृश महान धर्मोपदेष्टा के लिये महान् श्रोता एवं उनके कथनका अनुवाद करनेवाले गणधरदेवका अभाव है। साथ ही यह भी जाना कि इस विषयकी पात्रता इंद्रभूति गौतम नामक जैन विद्वानमें है । अतएव अपनी कार्यकुशलतासे देवेन्द्रने इंद्रभूतिको भगवान महावीरकी धर्मसभा - ममवमग्ण - की
मनुष्यों में उच्चता-नीचता क्यों ?
र लाकर उपस्थित किया । इतने में मानस्तंभका दर्शन होते ही इंद्रभूतिके विचारों में मार्दवभाव उत्पन्न हो गए, सारी अकड़ जाती रही और वह क्षणभरमें महावीर प्रभुकी महत्ता से प्रभावित बन गया। प्रभु वैराग्य, आत्मतेज और योगबलने
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गौतमके जीवन में युगान्तरकारी परिवर्तन उत्पन्न कर दिया । वे संपूर्ण परिहों का परित्याग करके प्राकृतिक परिधानके धारक जैन श्रमण बन गए और उन्होंने महावीर प्रभुकी ही मुद्रा धारण की। अपनी आत्मशक्तिके सहसा विकसित हो जाने से श्रीगौतमने अनेक प्रकार के महान् ज्ञानोंको प्राप्त किया तथा वे 'गणधर' जैसे महान् पद पर प्रतिष्ठित हो गए। इधर इतना हुआ ही था कि, उधर भगवान् महावीरको सर्वभाषात्मिका दिव्यवाणी सब प्राणियोंके कर्णगोचर होने लगी । अनेकान्त के सूर्यका प्रकाश फैलने से एकान्तका निविंड अन्धकार दूर होगया, जगतको अपने सच्चे सुधारका मार्ग दीखने लगा और यह मालूम होने लगा कि वास्तव में कर्मबंधन से छूटनेका उपाय श्रात्मशक्तिका निश्चय, उसका परिज्ञान तथा आत्मामें अखंड लीनता है । उस धर्मदेशना अर्थात शासन-तीर्थ के प्रकट होनेका प्रथम पुण्य दिन श्रावण कृष्णा प्रतिपदाका सुप्रभात था, जब संसारका भगवान् महावीरकी वास्तविक एवं लोकोत्तर महत्ता का परिज्ञान हुआ । मिध्यात्वके अंधकार के कारण अनन्त योनियों में दुःख भोगने वाले प्राणियों को सच्चे कल्याणमार्ग में लगानेकी बलवती भावना भगवान् महावीरने एक बार शुद्ध अंतःकरण से की थी, उस भावनाके कारण उन्होंने 'तीर्थंकर प्रकृति' नामक पुण्य कर्मका संचय किया था; उक्त तिथिको उस पुण्य प्रकृति के विपाकका सत्रको अनुभव हुआ । लोगोंको ज्ञात हुआ कि वास्तव में सर्वज्ञ महावीरकी वाणी अखण्डनीय एवं अतुलनीय है, जो भी वादी उनके समीप श्राता था वह 'ममंतभद्र' बन जाता था; देखिए स्वामी समंतभद्र कितनी सुन्दर बात कहते हैं